Monday, September 8, 2025

मैं लिखूँगा तुम्हें

 मैं लिखूँगा तुम्हें


मैं गढ़ूँगा क़सीदे तुम्हारे —

तुम्हारे इतराने पर,

तुम्हारे रूठ कर चले जाने पर,

तुम्हारी मुस्कान में छुपी उजली धूप पर,

और तुम्हारे खुशी से गले लग जाने पर।


मैं लिखूँगा तुम्हें —

उस चाँदनी रात में,

जब तुम्हारी घनी ज़ुल्फ़ों में

एक मुसाफ़िर की सरसराहट

धीरे-धीरे खो जाती है।


मैं लिखूँगा तुम्हारे जज़्बातों पर,

हम दोनों के हालातों पर,

उन लम्हों पर भी

जो अनकहे रह जाते हैं।


मैं लिखूँगा हर सूक्ष्म बात,

हर नन्ही-सी अनुभूति —

जब तक कि

स्वयं का अस्तित्व नगण्य न हो जाए।

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मैं लिखूँगा तुम्हें

 मैं लिखूँगा तुम्हें मैं गढ़ूँगा क़सीदे तुम्हारे — तुम्हारे इतराने पर, तुम्हारे रूठ कर चले जाने पर, तुम्हारी मुस्कान में छुपी उजली धूप पर, औ...