अंगुली पकड़कर पिता ने चलना सिखाया,
हर ठोकर पर आगे बढ़ना सिखाया।
कंधों पे बिठा कर दुनिया को दिखाया,
हर डर को हंसी के साथ हरना सिखाया।
धूप में छाँव बने वो दरख़्त जैसे,
खुद दीपक जैसे जलकर,
हमारे जीवन को जगमगाया ।
हर ज़िम्मेदारी को उन्होने हँसकर है निभाया,
हमारी खातिर उन्होने
अपने सपनों को भी भुलाया।
बचपन की किलकारियों में जिनकी हँसी थी,
हर जीत में जिनकी आँखों में नमी थी।
खामोश रहकर भी बहुत कुछ कह जाते थे,
पिता... शब्दों से नहीं, अपने कर्मों से निभाते थे।
न वो कभी स्नेह जताते, न वो शिकायत करते थे,
लेकिन हर मोड़ पर हम में संबल भरते थे।
उनके कदमों के निशान ने ही तो हमें,
हर मुश्किल से उबरना सिखाया।
जीवन की डगर में उन्होने हमें चलना सिखाया।
पिता फ़क़त एक शब्द नहीं,
जीवन का सार है।
पिता हमारे जीवन का आधार है
पिता में ही तो समाया समस्त संसार है।