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Wednesday, October 8, 2025

अभिभावक की भूमिका और परवरिश का प्रभाव: महाभारत से लेकर आज के युग तक


अभिभावक की भूमिका और परवरिश का प्रभाव: महाभारत से लेकर आज के युग तक


समय चाहे महाभारत का हो या आज का आधुनिक युग — बच्चों के निर्माण में अभिभावक की भूमिका सदैव सबसे महत्वपूर्ण रही है। बच्चे समाज की नींव हैं, और इस नींव की मजबूती इस बात पर निर्भर करती है कि अभिभावक उन्हें किस दिशा में और किस सोच के साथ मार्गदर्शन देते हैं। आज के समय में


जब तकनीक, प्रतिस्पर्धा और भौतिकता जीवन का केंद्र बन चुकी है, तब सबसे बड़ी चुनौती है — बच्चों को सही दिशा में ले जाना।


हर माता-पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा जीवन में सफलता प्राप्त करे, एक अच्छा इंसान बने और समाज में अपनी पहचान स्थापित करे। लेकिन केवल यह चाहना पर्याप्त नहीं।

यह तभी संभव है जब अभिभावक अपने बच्चों का मार्गदर्शन समझदारी, धैर्य और संवेदनशीलता के साथ करें।



आज की परवरिश की सच्चाई

अक्सर देखा जाता है कि कई अभिभावक यह मान लेते हैं कि अपने बच्चे की हर आवश्यकता पूरी कर देना — स्कूल और ट्यूशन की फीस देना, नई वस्तुएँ खरीदकर देना या उसकी हर इच्छा पर तुरंत प्रतिक्रिया देना — यही एक जिम्मेदार अभिभावक होने की निशानी है। लेकिन सच्चाई यह है कि सुविधाएँ उपलब्ध कराना परवरिश नहीं, केवल पालन-पोषण का एक हिस्सा है।

बच्चे की हर माँग को बिना समझे पूरी कर देना उसे जीवन के संघर्षों से दूर कर देता है। यह सोच धीरे-धीरे बच्चे के भीतर यह भावना पैदा करती है कि उसे बिना प्रयास के सब कुछ मिलना चाहिए। यही सोच आगे चलकर अहंकार, असंवेदनशीलता और निर्भरता में बदल जाती है।


महाभारत से सीख: परवरिश का अंतर


यदि हम महाभारत की कथा देखें तो वहाँ भी दो परवरिशें थीं — एक उदाहरण और एक चेतावनी।

एक ओर थे पांडु के पुत्र, जिन्हें सत्य, संयम और धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा मिली। दूसरी ओर थे धृतराष्ट्र के पुत्र, जिन्हें बिना सीमाओं के लाड़-प्यार और पक्षपातपूर्ण संरक्षण मिला।


धृतराष्ट्र अपने पुत्रों, विशेषकर दुर्योधन, से अत्यधिक मोह रखते थे। वे उसकी गलतियों को कभी रोकते नहीं थे। परिणामस्वरूप, दुर्योधन के भीतर अहंकार, ईर्ष्या और असहिष्णुता पनपने लगी। उसे विश्वास था कि जो चाहे वह पा सकता है, चाहे वह न्यायोचित हो या नहीं।


इसके विपरीत, पांडवों को बचपन से ही संयम, मेहनत और जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाया गया। उनकी माता कुंती ने कठिन परिस्थितियों में भी अपने बच्चों को विनम्रता और सच्चाई के मूल्य सिखाए। गुरु द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह ने उन्हें जीवन के शस्त्र और शास्त्र दोनों का ज्ञान दिया।


परिणाम यह हुआ कि जब दुर्योधन ने छल और अन्याय का मार्ग अपनाया, तब युधिष्ठिर ने हर परिस्थिति में धर्म का साथ दिया।  कुरुक्षेत्र का युद्ध केवल सत्ता का नहीं, बल्कि दो भिन्न परवरिशों के टकराव का प्रतीक था — एक ने अहंकार को जन्म दिया, दूसरी ने आदर्श को।


वर्तमान समय के लिए संदेश


आज के अभिभावक भी अक्सर “धृतराष्ट्र जैसी गलती” कर बैठते हैं —

वे अपने बच्चों को गलतियों से बचाने की कोशिश में उन्हें जिम्मेदारी से दूर कर देते हैं। बच्चों को हर बार जीत की आदत डाल देना, असफलता से बचाना, या “मेरे बच्चे को कुछ मत कहो” कहना — ये सब उन्हें कमजोर बना देता है।


इसके विपरीत, अगर बच्चे को यह सिखाया जाए कि हर कार्य के पीछे कारण समझना जरूरी है, कि सफलता प्रयास से मिलती है और कि सम्मान कमाया जाता है, तो वही बच्चा भविष्य में युधिष्ठिर या अर्जुन की तरह दृढ़ और विवेकशील बनेगा।


बच्चों से छोटे-छोटे काम करवाना, जैसे घर की व्यवस्था में सहयोग देना या अपनी चीज़ें स्वयं संभालना, न केवल जिम्मेदारी का भाव जगाता है बल्कि उनमें आत्मनिर्भरता और संवेदनशीलता भी पैदा करता है।


अंततः — सच्ची परवरिश क्या है?

सच्ची परवरिश का अर्थ बच्चों को केवल सुविधाएँ देना नहीं, बल्कि उन्हें यह सिखाना है कि जीवन में हर परिस्थिति से कैसे जूझना है।

एक जिम्मेदार अभिभावक वह नहीं जो हर समस्या को बच्चे के रास्ते से हटा दे, बल्कि वह है जो बच्चे को सिखाए कि समस्याओं से कैसे निपटना है।


महाभारत की तरह आज भी यही सत्य है —


“सही परवरिश ही बच्चे का भविष्य तय करती है।”

अगर आज अभिभावक अपने बच्चों में सही सोच, जिम्मेदारी और आत्मसंयम के संस्कार बोते हैं, तो भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल होगा।


क्योंकि, बच्चों को सही दिशा देना ही सबसे बड़ा प्रेम है — और यही सबसे बड़ी जिम्मेदारी भी।

Wednesday, October 1, 2025

स्त्री और मातृत्व : समाज की सोच पर पुनर्विचार

स्त्री और मातृत्व : समाज की सोच पर पुनर्विचार


स्त्री का मातृत्व केवल एक जैविक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक गहरा और अनोखा अनुभव है। जब एक स्त्री नवजात शिशु को जन्म देती है, तो लोग प्रायः उस नन्हीं जान के आने का उत्सव मनाते हैं, लेकिन बहुत कम लोग यह समझते हैं कि वास्तव में यह स्त्री का भी पुनर्जन्म होता है। वह नौ माह तक अपनी कोख में जीवन को संजोए रखती है, अपनी इच्छाओं और सुखों का त्याग करती है, अनगिनत पीड़ाओं से गुजरती है और अंततः संसार को नया जीवन देती है।


फिर भी, इन त्यागों और बलिदानों को समाज अक्सर अनदेखा कर देता है। उसके जीवन में दुख और यातनाएँ ऐसे जुड़े रहते हैं, मानो यह उसी के हिस्से का स्थायी सत्य हो। और यदि कोख में पल रही संतान एक लड़की हो, तो यह यातना और भी बढ़ जाती है। समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी स्त्री को इसके लिए दोषी ठहराता है, जैसे संतान का लिंग निर्धारण केवल उसी के हाथों में हो।


लेकिन यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि संतान का लिंग निर्धारण पुरुष के गुणसूत्रों पर निर्भर करता है। फिर भी, स्त्री को ही दोष देने की मानसिकता हमारे समाज की गहरी जड़ें जमा चुकी सोच को दर्शाती है। सवाल उठता है कि जब संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया में पुरुष और स्त्री दोनों की भूमिका समान है, तो सारा दोष केवल स्त्री पर क्यों मढ़ा जाता है?


असल में, यह स्थिति केवल व्यक्तिगत सोच का परिणाम नहीं है, बल्कि हमारे सामाजिक ढांचे की असमानताओं को उजागर करती है। समाज की बागडोर लंबे समय से पुरुषों के हाथों में रही है। पुरुष प्रधान मानसिकता के कारण स्त्री को हर स्थिति में दोषी ठहराना मानो परंपरा बन गई है। यह प्रवृत्ति न केवल स्त्री का अपमान है, बल्कि ईश्वर की उस मंशा के भी विपरीत है जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों को समान और पूरक के रूप में बनाया गया है।


शारीरिक विभिन्नताओं के आधार पर स्त्री को हीन या दोषी ठहराना किसी भी दृष्टिकोण से न्यायोचित नहीं है। समय की मांग है कि समाज इस संकीर्ण सोच से बाहर निकले और यह स्वीकार करे कि संतानोत्पत्ति में स्त्री और पुरुष दोनों समान रूप से सहभागी हैं।


स्त्री केवल जीवन देने वाली नहीं, बल्कि वह परिवार और समाज की धुरी है। उसके बिना न तो जीवन संभव है और न ही समाज का अस्तित्व। इसलिए अब यह आवश्यक है कि हम स्त्री को दोषमुक्त दृष्टि से देखें, उसे उसके वास्तविक सम्मान और अधिकार दें। यही एक स्वस्थ, संतुलित और समान समाज की ओर पहला कदम होगा।

Saturday, August 23, 2025

इंसानियत को तार-तार करने वाले जघन्य अपराध और समाज की ज़िम्मेदारी

 इंसानियत को तार-तार करने वाले जघन्य अपराध और समाज की ज़िम्मेदारी

आज के समय में जब हम अख़बार खोलते हैं या न्यूज़ चैनल देखते हैं, तो कई बार दिल दहला देने वाली खबरें सामने आती हैं। नाबालिग बच्चों के साथ बलात्कार, अपने स्वार्थ के लिए किसी की बेरहमी से हत्या, और तरह-तरह के अपराध... ये सब इंसानियत को शर्मसार कर देते हैं। सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसे अपराध किस श्रेणी में आते हैं? इनके लिए कैसी सज़ा होनी चाहिए ताकि अपराधी अपराध करने से पहले हज़ार बार सोचें? और सबसे ज़रूरी – क्या हम और आप, समाज के नागरिक होने के नाते, इन अपराधों को रोक सकते हैं?

1. ये अपराध किस श्रेणी में आते हैं?

  • ऐसे अपराध जघन्य अपराध (Heinous Crimes) कहलाते हैं।
  • नाबालिगों से रेप
  • किसी का स्वार्थ के लिए मर्डर
  • या दूसरों को शारीरिक व मानसिक रूप से गंभीर हानि पहुँचाना
  • ये सभी ऐसे अपराध हैं जो न केवल एक व्यक्ति के खिलाफ होते हैं, बल्कि पूरे समाज और उसकी नैतिकता को चोट पहुँचाते हैं।

2. कैसी होनी चाहिए सज़ा?

  • लोग अक्सर कहते हैं कि “कड़ी सज़ा होनी चाहिए”। पर सवाल है, कैसी सज़ा?
  • कठोर दंड – रेप और मर्डर जैसे अपराधों में मृत्युदंड या आजीवन कारावास।
  • तुरंत फैसला – सालों मुकदमा चलने की बजाय फास्ट-ट्रैक कोर्ट में न्याय।
  • सामाजिक निंदा – अपराधी की पहचान उजागर करना ताकि समाज उसे स्वीकार न करे।
  • जब अपराधी को तुरंत और कठोर सज़ा मिलती है, तो बाकी लोग भी अपराध करने से पहले डरते हैं।

3. क्या ऐसे अपराध रोके जा सकते हैं?

  • पूरी तरह अपराध मिटाना शायद मुश्किल हो, लेकिन इन्हें बहुत हद तक कम ज़रूर किया जा सकता है।
  • परिवार और शिक्षा – बच्चों को अच्छे संस्कार, सहानुभूति और दूसरों की इज़्ज़त करना सिखाना।
  • कानून का सख़्ती से पालन – अपराधी चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसे बचाना नहीं।
  • जागरूकता – समाज को समझना होगा कि चुप रहना अपराधी को ताक़त देना है।
  • टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल – CCTV, हेल्पलाइन नंबर, सुरक्षा ऐप्स जैसे साधन अपनाना।

4. हर व्यक्ति की भूमिका

  • अब सवाल आता है – हम और आप क्या कर सकते हैं?
  • अगर किसी के साथ अन्याय दिखे तो रिपोर्ट करें, चुप न रहें।
  • पीड़ित को न्याय दिलाने में सहयोग दें।
  • अपने बच्चों और अगली पीढ़ी को सही-गलत का ज्ञान दें।
  • पड़ोस, स्कूल और समाज में बच्चों व महिलाओं की सुरक्षा पर ध्यान दें।

5. पहले के युगों में अपराध और सज़ा:- हमारे धर्मग्रंथों में भी अलग-अलग युगों में अपराध और दंड की व्यवस्था का ज़िक्र मिलता है।

  • सतयुग – उस समय धर्म इतना प्रबल था कि अपराध लगभग होते ही नहीं थे। समाज ही अनुशासन से चलता था।
  • त्रेतायुग – रामराज्य का उदाहरण लें, जहाँ न्याय तुरंत और निष्पक्ष होता था। अपराधी को तत्काल दंड मिलता था।
  • द्वापरयुग – महाभारत काल में भी अन्याय को रोकने के लिए युद्ध और कठोर दंड ही रास्ता बने।
  • कलियुग (आज का समय) – यहाँ कानून, पुलिस और न्यायपालिका ही सबसे बड़े साधन हैं। साथ ही, समाज और नागरिकों की ज़िम्मेदारी भी।


अपराधों को रोकने के लिए किसी तरह का कानून बना देना या फिर सिर्फ़ सरकार पर निर्भर रहना काफ़ी नहीं है। ज़रूरी है कि हम सब एक जिम्मेदार नागरिक कि भांति अपनी जिम्मेदारी निभाएँ। अगर हर नागरिक यह ठान ले कि न तो खुद अपराध करेगा, न अपराधी को बचाएगा, बल्कि पीड़ित का साथ देगा, तो अपराधों को बहुत हद तक रोका जा सकता है।

समाज को जीवित रखने के लिए आवश्यक है कि हम सब हरेक के प्रति सहानुभूति का भाव रखते हुए अपने अंदर इंसान को जिंदा रखें। क्योंकि, समाज तभी सुरक्षित रहेगा, जब इंसानियत बची रहेगी,  

कक्षा 12 में मनोविज्ञान चुनने का भविष्य और करियर स्कोप

 कक्षा 12 में मनोविज्ञान चुनने का भविष्य और करियर स्कोप

आज के दौर में मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) और व्यवहारिक समझ की अहमियत पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई है। ऐसे में मनोविज्ञान (Psychology) सिर्फ एक विषय नहीं, बल्कि भविष्य की असीम संभावनाओं का द्वार है। 

मनोविज्ञान पढ़ने के बाद किन क्षेत्रों में प्रवेश की संभावना बढ़ती है?

कक्षा 12 में मनोविज्ञान लेने के बाद छात्र निम्नलिखित क्षेत्रों में आगे बढ़ सकते हैं:

  • क्लिनिकल साइकोलॉजी (Clinical Psychology) – मानसिक रोगों, डिप्रेशन, एंग्जाइटी, ट्रॉमा आदि का इलाज और काउंसलिंग।
  • काउंसलिंग (Counseling Psychology) – स्कूल, कॉलेज या परिवार में मार्गदर्शन और जीवन की समस्याओं के समाधान देना।
  • मनोविश्लेषण (Psychoanalysis) – गहरी मानसिक प्रक्रियाओं और अवचेतन मन को समझना।
  • ऑर्गेनाइजेशनल/इंडस्ट्रियल साइकोलॉजी – कंपनियों और संगठनों में कर्मचारियों की मानसिक स्थिति व कार्यक्षमता सुधारना।
  • एजुकेशनल साइकोलॉजी – छात्रों की सीखने की प्रक्रिया, रुचियों और व्यवहार को समझना।
  • फॉरेंसिक साइकोलॉजी – अपराध की जांच में मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का प्रयोग।
  • स्पोर्ट्स साइकोलॉजी – खिलाड़ियों के आत्मविश्वास और मानसिक प्रदर्शन को बेहतर करना।
  • साइंस, कॉमर्स और आर्ट्स – तीनों स्ट्रीम्स में मनोविज्ञान का स्कोप

1. साइंस (Science Stream) के छात्रों के लिए

  • साइंस स्ट्रीम से आने वाले छात्र न्यूरो-साइकोलॉजी, क्लिनिकल रिसर्च, हेल्थ साइकोलॉजी और फॉरेंसिक साइकोलॉजी जैसे क्षेत्रों में आसानी से प्रवेश कर सकते हैं।
  • उन्हें मेडिकल और बायोलॉजी का ज्ञान पहले से होता है, इसलिए वे मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े वैज्ञानिक शोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • आगे चलकर एमबीबीएस + साइकियाट्री (Psychiatry) में भी अवसर मिल सकता है।

2. कॉमर्स (Commerce Stream) के छात्रों के लिए

  • कॉमर्स के छात्रों के लिए मनोविज्ञान का बड़ा स्कोप ऑर्गेनाइजेशनल/इंडस्ट्रियल साइकोलॉजी और ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट (HRM) में है।
  • वे कंपनियों, बैंकों, बिजनेस और कॉर्पोरेट सेक्टर में कर्मचारियों की कार्यकुशलता, तनाव प्रबंधन और मोटिवेशन पर काम कर सकते हैं।
  • कंज्यूमर बिहेवियर (Consumer Behaviour) और मार्केट रिसर्च भी एक मजबूत करियर विकल्प है।

3. आर्ट्स (Arts Stream) के छात्रों के लिए

  • आर्ट्स स्ट्रीम से आने वाले छात्र मनोविज्ञान में पारंपरिक रूप से सबसे बड़ी संख्या में आगे बढ़ते हैं।
  • इनके लिए स्कोप क्लिनिकल साइकोलॉजी, काउंसलिंग, एजुकेशनल साइकोलॉजी और सोशल वर्क में होता है।
  • यह छात्र समाज, शिक्षा और परिवार से जुड़े मनोवैज्ञानिक पहलुओं में गहराई से काम कर सकते हैं।
  • भविष्य में मनोविज्ञान का स्कोप क्यों बढ़ रहा है?
  • बदलती जीवनशैली और तनावपूर्ण दिनचर्या।
  • बच्चों, किशोरों और युवाओं में मानसिक समस्याओं का बढ़ना।
  • कॉर्पोरेट कंपनियों और संस्थानों में वेलनेस प्रोग्राम की मांग।
  • सरकार और निजी संगठनों द्वारा मानसिक स्वास्थ्य पर जागरूकता अभियान।
  • विदेशों में तो पहले से ही मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का विशाल बाजार है, और भारत में भी यह तेजी से बढ़ रहा है।

कौन-कौन से कोर्स करने चाहिए?

  • यदि आप Psychologist या Counselor बनना चाहते हैं तो आपको इन स्टेप्स का पालन करना होगा:
  • कक्षा 12 (Arts/Science/Commerce) + Psychology Subject – आधारभूत ज्ञान प्राप्त होगा।
  • Graduation (B.A / B.Sc in Psychology) – यह पहला प्रोफेशनल कदम है।
  • Post-Graduation (M.A / M.Sc in Psychology) – इसमें आप अपनी विशेष रुचि के अनुसार विशेषज्ञता (Specialization) चुन सकते हैं – जैसे Clinical, Counseling, Industrial आदि।
  • M.Phil / Ph.D. in Psychology (यदि रिसर्च या उच्च शिक्षा में जाना हो)।
  • डिप्लोमा और सर्टिफिकेट कोर्स – School Counseling, Clinical Counseling, Child Psychology, Forensic Psychology आदि।

एक Psychologist या Counselor बनने के लिए जरूरी कौशल

  • लोगों की बातों को धैर्यपूर्वक सुनने की क्षमता।
  • सहानुभूति (Empathy) और संवेदनशीलता।
  • समस्याओं का तार्किक विश्लेषण करने की योग्यता।
  • संवाद कौशल (Communication Skills)।
  • गोपनीयता बनाए रखने और पेशेवर दृष्टिकोण।

कक्षा 12 में मनोविज्ञान चुनना सिर्फ एक विषय का चुनाव नहीं, बल्कि एक ऐसे भविष्य की ओर कदम बढ़ाना है जहाँ आप समाज की वास्तविक जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। चाहे आप साइंस, कॉमर्स या आर्ट्स किसी भी स्ट्रीम से हों, मनोविज्ञान का दायरा आपके लिए खुला है। इसमें कैरियर, सम्मान और सेवा – तीनों का संगम है। यदि आप समाज मे दूसरों की जिंदगी में सकारात्मक बदलाव लाने का सपना देखते हैं, तो मनोविज्ञान आपके लिए सबसे उत्तम विकल्प है।

Tuesday, August 19, 2025

शिक्षक – राष्ट्र की नींव और बदलता दृष्टिकोण

 शिक्षक – राष्ट्र की नींव और बदलता दृष्टिकोण


“किसी भी देश की नींव उसके शिक्षक होते हैं।” यह वाक्य केवल कहने भर के लिए नहीं बल्कि एक सच्चाई है। शिक्षक ही वह शक्ति हैं जो मिट्टी को आकार देकर इंसान बनाते हैं और इंसानों से मिलकर राष्ट्र का निर्माण करते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि जिस शिक्षक ने अपने कंधों पर देश का भविष्य सँवारने का जिम्मा उठाया, वही आज अपने भविष्य और अस्तित्व के लिए चिंतित है।

त्याग और संघर्ष की अनदेखी

शिक्षक जीवनभर अपने शिष्यों के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है। समय, ऊर्जा, ज्ञान और कभी-कभी अपने सपने तक। लेकिन बदले में उसे मिलता क्या है? सम्मान, जो धीरे-धीरे कम होता जा रहा है; सुविधाएँ, जो अन्य पेशों की तुलना में न के बराबर हैं; और सुरक्षा, जो भविष्य की ओर देखते हुए धुंधली-सी लगती है।

जिम्मेदार कौन?:- इस स्थिति के लिए जिम्मेदारी केवल एक पक्ष पर डालना उचित नहीं होगा।

  • बदलता सामाजिक परिवेश – आज की दुनिया में सफलता का पैमाना पैसों और पद से आँका जाने लगा है। ऐसे में शिक्षक का योगदान कमतर आँका जाता है।
  • सरकार – नीतियाँ तो बनती हैं, पर शिक्षक को केंद्र में रखकर नहीं। उसका आर्थिक, सामाजिक और मानसिक विकास अक्सर उपेक्षित रह जाता है।
  • अभिभावक और समाज – पहले जहाँ शिक्षक को “गुरु देवो भवः” की दृष्टि से देखा जाता था, वहीं अब उसे सिर्फ “सेवा प्रदाता” की तरह माना जाने लगा है।
  • शिक्षक स्वयं – कभी-कभी शिक्षक भी अपनी सीमाओं में बंधकर अपने दायित्वों से दूर होते दिखाई देते हैं।

शिक्षा का बदलता स्वरूप

आज शिक्षा का मुख्य उद्देश्य “जिम्मेदार नागरिक” बनाना नहीं बल्कि “सफल कर्मचारी” बनाना भर रह गया है। शिक्षा को मानो एक फैक्ट्री बना दिया गया है, जहाँ से अंक और डिग्रियाँ तो निकल रही हैं, पर मानवीय मूल्य और नैतिकता कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं।

 शिक्षक का असली मूल्य

एक डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, वैज्ञानिक या नेता – हर किसी के पीछे एक शिक्षक खड़ा होता है। अगर शिक्षक न हो तो इन पेशों का जन्म ही संभव नहीं। फिर भी सबसे कम सम्मान और सुविधाएँ उसी को क्यों?

आवश्यक बदलाव

  • अब समय है कि हम फिर से अपने समाज में शिक्षक की प्रतिष्ठा को पुनर्जीवित करें।
  • सरकार को चाहिए कि शिक्षक को केवल “नौकरी” नहीं, बल्कि “राष्ट्र निर्माता” के रूप में देखें और उसकी स्थिति सुधारें।
  • अभिभावकों और समाज को यह समझना होगा कि बच्चों के चरित्र निर्माण में शिक्षक की भूमिका किसी से कम नहीं है।
  • और स्वयं शिक्षक को भी अपने कर्तव्यों और मूल्यों को पुनः जागृत करना होगा, ताकि वह सिर्फ पढ़ाने वाला नहीं बल्कि मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत बन सके।

शिक्षक सिर्फ कक्षा में पढ़ाने वाला व्यक्ति नहीं, बल्कि वह नींव है जिस पर आने वाली पीढ़ियाँ और राष्ट्र खड़ा होता है। अगर नींव कमजोर होगी तो भवन कितना भी भव्य क्यों न बने, टिक नहीं पाएगा। इसलिए शिक्षक के व्यवसाय को जीवंत रखने के लिए आवश्यक है कि हम शिक्षक को उसका सही स्थान और सम्मान दें। और आने वाली पीढ़ी शिक्षण को  मजबूरी या टाइम पास की नज़र से ना देख कर, सामाजिक सेवा और रुचि के साथ शिक्षक के पेशे को अपनाए। तभी  देश का भविष्य सुरक्षित और उज्ज्वल हो पाएगा।

Saturday, August 16, 2025

शिकायत नहीं, समाधान है असली परवरिश

शिकायत नहीं, समाधान है असली परवरिश

आज के दौर में लगभग हर घर की एक आम कहानी है – बच्चे ठीक से खाना नहीं खाते, पढ़ाई में ध्यान नहीं लगाते और घंटों मोबाइल-फोन या टीवी में व्यस्त रहते हैं। माता-पिता, अपने मन की बात कहने के लिए, कभी दोस्तों से, कभी रिश्तेदारों से और कभी पड़ोसियों से अपने बच्चों की कमियाँ गिनाते रहते हैं।

लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि ऐसा करने से बच्चे पर क्या असर पड़ता होगा?

जब बच्चा बार-बार यह सुनता है कि उसके माता-पिता हर जगह उसकी शिकायत कर रहे हैं, तो उसके दिल और दिमाग में यह बात बैठ जाती है कि वह केवल “गलत” ही है। धीरे-धीरे वह अपने माता-पिता के प्रति ही नकारात्मक दृष्टिकोण बनाने लगता है। यानी समस्या हल होने की बजाय और गहरी हो जाती है।

असल में, शिकायत करना आसान है लेकिन समाधान खोजना ही सच्ची परवरिश की पहचान है। बच्चे छोटे होते हैं, गलतियाँ करना उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। अभिभावक का काम केवल कमी ढूँढना नहीं बल्कि उन कमियों को दूर करने के लिए सही रास्ता दिखाना है।

समस्या: शिकायत का दुष्चक्र

  • आत्मविश्वास की कमी – लगातार आलोचना सुनने से बच्चा अपने आप को अयोग्य मानने लगता है।
  • नकारात्मक सोच – उसे लगता है कि वह चाहे कुछ भी करे, माता-पिता संतुष्ट नहीं होंगे।
  • दूरी और विद्रोह – बार-बार शिकायत सुनने से बच्चा माता-पिता से दूरी बनाने लगता है और विरोधी व्यवहार करने लगता है।
  • समाज के सामने हीन भावना – जब रिश्तेदारों या दोस्तों के बीच उसकी बुराई होती है, तो बच्चा खुद को औरों से कमतर महसूस करता है।

समाधान: शिकायत नहीं, संवाद और सहयोग

  • समस्या को समझकर अगर अभिभावक सही दृष्टिकोण अपनाएँ, तो बच्चों का व्यवहार सकारात्मक रूप से बदल सकता है।
  • संवाद और सुनना – बच्चे की बात को ध्यान से सुनें, उसकी समस्या जानें। कई बार बच्चे इसलिए चिड़चिड़े या जिद्दी होते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि कोई उन्हें समझता ही नहीं।
  • उदाहरण प्रस्तुत करें – अगर माता-पिता ही दिन भर मोबाइल पर रहेंगे, तो बच्चे को रोकना कठिन होगा। खुद अच्छा व्यवहार दिखाकर बच्चों को प्रेरित करें।
  • सकारात्मक प्रोत्साहन – केवल गलती पर ध्यान न दें। जब बच्चा अच्छा व्यवहार करता है, तो उसकी प्रशंसा करें।
  • समय और साथ – बच्चे के साथ समय बिताएँ, खेलें, पढ़ाई में रुचि दिखाएँ। अभिभावकों का साथ ही बच्चों को सही दिशा देता है।
  • अनुशासन का संतुलन – न तो अति सख्ती करें, न ही पूरी छूट दें। प्यार और अनुशासन का संतुलित मेल ही बच्चे के व्यक्तित्व को निखारता है।

बच्चों को सुधारने की मनसा से माता - पिता के द्वारा, जाने अनजाने मे की जाने वाली शिकायत उनमें सुधार करने की जगह उनके मनोबल को गिराती हैं। बच्चों की आदतें सुधारने के लिए माता-पिता को धैर्य, संवाद और सकारात्मक दृष्टिकोण की ज़रूरत है। अभिभावक को समझना चाहिए की शिकायत से नहीं, बल्कि समाधान से ही परिवार खुशहाल बनता है और बच्चे आत्मविश्वास के साथ अपने जीवन की राह पर आगे बढ़ते हैं। 

Thursday, August 14, 2025

बच्चों में अच्छी आदतें और अनुशासन का निर्माण – सफलता की पहली सीढ़ी

 बच्चों में अच्छी आदतें और अनुशासन का निर्माण – सफलता की पहली सीढ़ी


हर माता-पिता का सपना होता है कि उनका बच्चा पढ़ाई में अच्छा करे, आत्मविश्वासी बने और जीवन में ऊँचाइयों तक पहुँचे। लेकिन केवल प्रतिभा या पढ़ाई ही सफलता की गारंटी नहीं होती—उसके लिए अच्छी आदतें और अनुशासन बेहद जरूरी हैं।

बिना अनुशासन के, बच्चे की ऊर्जा और क्षमता सही दिशा में नहीं जा पाती। अनुशासन वह पुल है जो सपनों को हकीकत से जोड़ता है। लेकिन सवाल यह है—माता-पिता अपने बच्चों में यह गुण कैसे विकसित करें? आइए इस लेख के माध्यम से आज इस विषय पर विस्तार से बात करें।

1. स्वयं उदाहरण बनें – "बच्चे सुनते कम, देखते ज्यादा हैं" :- बच्चे सबसे पहले अपने माता-पिता को देखकर सीखते हैं। यदि आप समय पर उठते हैं, काम में ईमानदारी दिखाते हैं, और लोगों से सम्मानपूर्वक बात करते हैं—तो बच्चा भी इन्हीं गुणों को अपनाएगा।

यदि आप मोबाइल पर समय बर्बाद करते हैं, तो बच्चा भी ऐसा करेगा।

उदाहरण:- अगर आप रोज़ सुबह 6 बजे उठकर व्यायाम करते हैं, तो बच्चे को भी प्रेरणा मिलेगी।

2. दिनचर्या तय करना – जीवन में स्थिरता का आधार:- एक सुव्यवस्थित दिनचर्या बच्चों को अनुशासन सिखाने का सबसे आसान तरीका है। 

  • सुबह उठने का समय तय करें।
  • पढ़ाई, खेलने और आराम के समय को अलग रखें।
  • भोजन और सोने का समय नियमित रखें।

लाभ:

  • बच्चा समय का महत्व समझेगा।
  • पढ़ाई और खेल दोनों में संतुलन रहेगा।

3. स्पष्ट नियम और अपेक्षाएँ – सीमाएँ जरूरी हैं :- बच्चे को यह पता होना चाहिए कि परिवार में क्या सही है और क्या गलत।

  • नियम स्पष्ट और उम्र के अनुसार हों।
  • गलत व्यवहार पर सज़ा से ज्यादा सही मार्गदर्शन दें।

उदाहरण: - "टीवी देखने का समय रोज़ 30 मिनट"—यह स्पष्ट नियम है।

4. प्रोत्साहन और सराहना – सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत :- 

  • अच्छा काम करने पर बच्चे की तारीफ़ करें।
  • यह बच्चे के आत्मविश्वास को बढ़ाता है।
  • वह उस व्यवहार को दोहराने के लिए प्रेरित होता है।

उदाहरण:- "आज तुमने अपना होमवर्क समय पर पूरा किया, मुझे तुम पर गर्व है।"

5. जिम्मेदारी देना – आत्मनिर्भरता की ओर कदम:- 

  • बच्चे को घर के छोटे-छोटे काम दें—
  • अपना बैग खुद तैयार करना।
  • किताबें व्यवस्थित रखना।
  • पौधों को पानी देना।

लाभ:

  • बच्चा जिम्मेदार बनता है।
  • वह सीखता है कि परिवार में सभी का योगदान जरूरी है।

6. धैर्य और निरंतरता – आदतें समय से बनती हैं

  • अच्छी आदतें और अनुशासन एक दिन में नहीं आते।
  • माता-पिता को धैर्य रखना होगा।
  • नियमों का पालन लगातार कराना होगा।

ध्यान रखें:- कभी-कभी बच्चा नियम तोड़ेगा—इसका मतलब यह नहीं कि आप हार मान लें।

7. स्क्रीन टाइम पर नियंत्रण – बचपन को बचाएँ:- 

  • आज के समय में मोबाइल, टीवी और वीडियो गेम बच्चों के अनुशासन को बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
  • स्क्रीन टाइम सीमित करें।
  • इसके बदले किताबें, क्राफ्ट, आउटडोर गेम्स और परिवार के साथ समय बिताने को प्रोत्साहित करें।

8. अनुशासन का मतलब दंड नहीं – सही मार्गदर्शन:-

  • कठोर सज़ा बच्चों में डर पैदा कर सकती है, लेकिन बदलाव नहीं लाती।
  • अनुशासन का मतलब है बच्चों को समझाना, उन्हें आत्मनियंत्रण सिखाना और उनके गलतियों से सीखने में मदद करना।

अंतत: यह कहा जा सकता है कि बच्चों के व्यवहार मे परिवर्तन लाने की प्रक्रिया कठिन जरूर हो सकती है, लेकिन असंभव नहीं। सुचारु और सकारात्म्क रूप से किए गए प्रयास बच्चों में अच्छी आदतों और अनुशासन का निर्माण करते है। लेकिन इसे स्थायी रूप से बनाए रखने के लिए इसमें प्यार, धैर्य, और निरंतरता की जरूरत होती है। जब माता-पिता खुद इन आदतों का पालन करते हैं, तो वे बच्चों के लिए सबसे बड़े प्रेरणास्रोत बनते हैं।

अभिभावकों को यह याद रखना चाहिए कि परिवर्तन कि यह प्रक्रिया धीमी जरूर लेकिन पूर्ण रूप से स्थायी है। अच्छी आदतें और अनुशासन केवल बच्चों के स्कूल जीवन में नहीं, बल्कि उनके पूरे जीवन में सफलता की मजबूत नींव रखते हैं।

Wednesday, August 13, 2025

किशोरावस्था में छात्रों के व्यवहार में बदलाव: कारण, समस्याएँ, समाधान और अभिभावकों का कर्तव्य

 किशोरावस्था में छात्रों के व्यवहार में बदलाव: कारण, समस्याएँ, समाधान और अभिभावकों का कर्तव्य

किशोरावस्था, जिसे टीन एज भी कहा जाता है, जीवन का वह दौर है जब बच्चा धीरे-धीरे वयस्कता की ओर बढ़ रहा होता है। यह उम्र लगभग 13 से 19 वर्ष के बीच मानी जाती है। इस समय शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्तर पर कई बड़े बदलाव आते हैं, जो उनके सोचने, महसूस करने और व्यवहार करने के तरीकों को प्रभावित करते हैं। 

किशोरावस्था के दौरान होने वाले ये परिवर्तन अक्सर किशोरों में तनाव और बेचैनी का कारण भी बन सकते हैं। वे अपने शरीर और भावनाओं में हो रहे बदलावों को लेकर चिंतित हो सकते हैं, और अपने साथियों और परिवार के साथ संबंधों में भी बदलाव का अनुभव कर सकते हैं। यह सबके जीवन मे यह एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन माता-पिता और शिक्षकों के लिए यह आवश्यक है कि वे किशोरों को समझें और इस दौरान उनका समर्थन करें. 

1. बदलाव आने के प्रमुख कारण

शारीरिक परिवर्तन:- इस उम्र में हार्मोनल बदलाव तेज़ी से होते हैं। लड़कों में दाढ़ी-मूंछ, भारी आवाज़ और मांसपेशियों का विकास, वहीं लड़कियों में मासिक धर्म की शुरुआत, शरीर के आकार में परिवर्तन और त्वचा संबंधी समस्याएँ दिखाई देती हैं। इन बदलावों से आत्म-छवि (Self-image) को लेकर संवेदनशीलता बढ़ जाती है।

मानसिक और भावनात्मक परिवर्तन:- किशोर अपने जीवन में "मैं कौन हूँ" का उत्तर खोजने लगते हैं। वे अपनी पहचान (Identity) बनाने की कोशिश करते हैं। मूड स्विंग्स, भावनात्मक संवेदनशीलता और कभी-कभी चिड़चिड़ापन इसी प्रक्रिया का हिस्सा हैं।

ध्यान भंग होने के कारण:- आज के समय में मोबाइल, सोशल मीडिया, वीडियो गेम और इंटरनेट पढ़ाई से ध्यान हटाने के सबसे बड़े कारण हैं। इसके अलावा दोस्तों का प्रभाव (Peer Pressure) और एक ही तरह की पढ़ाई में रुचि कम होना भी ध्यान भंग करता है।

विचारों में परिवर्तन:- इस उम्र में किशोर अपने विचार बनाने लगते हैं। वे परिवार के नियमों और परंपराओं पर सवाल उठाते हैं, तुलना करते हैं और नए प्रयोग करना चाहते हैं।

2. सामान्य समस्याएँ

  • पढ़ाई में ध्यान की कमी – पढ़ाई की बजाय मनोरंजन या मोबाइल में अधिक समय देना।
  • विद्रोही स्वभाव – माता-पिता और शिक्षकों की सलाह को अनदेखा करना।
  • गलत संगत – नकारात्मक आदतें और जोखिम भरे व्यवहार अपनाना।
  • तनाव और चिंता – भविष्य, परीक्षा, रिश्ते या शारीरिक दिखावे को लेकर चिंता।
  • अकेलापन और अवसाद – परिवार से दूरी और आत्मविश्वास में कमी।

3. संभावित समाधान

सकारात्मक संवाद:- माता-पिता रोज़ाना कुछ समय अपने बच्चे से खुलकर बात करें। उन्हें सुना जाए और बिना तुरंत आलोचना किए उनके विचारों को समझा जाए।

समय प्रबंधन:- पढ़ाई, खेल, मनोरंजन और आराम के लिए एक संतुलित दिनचर्या बनाई जाए। छोटे-छोटे लक्ष्य तय करके उन्हें पूरा करने पर सराहना की जाए।

डिजिटल अनुशासन:- स्क्रीन टाइम पर नियंत्रण रखा जाए। मोबाइल का उपयोग सीमित और निगरानी के साथ हो।

अच्छे आदर्श (Role Models):- घर में बड़े अपने व्यवहार से बच्चों को अनुशासन और सकारात्मक सोच का उदाहरण दें। प्रेरणादायक व्यक्तियों की कहानियाँ साझा करें।

सह-पाठ्यक्रम गतिविधियाँ:- खेल, कला, संगीत और सामाजिक कार्य में भागीदारी से आत्मविश्वास और टीमवर्क की भावना बढ़ती है।

मनोवैज्ञानिक परामर्श:- यदि बच्चा लंबे समय तक उदास, गुस्सैल या नकारात्मक सोच में उलझा हो तो काउंसलर की मदद ली जाए।

4. अभिभावकों का कर्तव्य

  • समझ और धैर्य रखना – बदलाव को विकास का स्वाभाविक हिस्सा मानना।
  • विश्वास का माहौल बनाना – ताकि बच्चा अपने मन की बातें बिना डर के कह सके।
  • निजता का सम्मान – उनकी प्राइवेसी बनाए रखते हुए सही मार्गदर्शन देना।
  • सकारात्मक अनुशासन अपनाना – डांट या सज़ा की बजाय समझदारी से नियम लागू करना।
  • निर्णय लेने का अवसर देना – ताकि उनमें जिम्मेदारी और आत्मनिर्भरता विकसित हो।
  • मूल्य शिक्षा देना – नैतिकता, सहानुभूति और जिम्मेदारी का बोध कराना।

किशोरावस्था को  "तूफान और तनाव की अवस्था" भी कहा जाता है यह जीवन की  संवेदनशील  अवस्था के साथ एक महत्वपूर्ण चरण भी है। यदि इस समय बच्चों को सही मार्गदर्शन, विश्वास और प्यार मिले तो वे आत्मविश्वासी, जिम्मेदार और सकारात्मक सोच वाले वयस्क बन सकते हैं। अभिभावकों का धैर्य, समझ और सहयोग ही इस परिवर्तनशील दौर में उनके सबसे बड़े सहारे होते हैं।


Monday, July 21, 2025

दिव्यांगता (Divyangta) का अर्थ और भारतीय कानून के अनुसार इसके प्रकार

दिव्यांगता (Divyangta) का अर्थ और भारतीय कानून के अनुसार इसके प्रकार 

दिव्यांगता (Divyangta) का अर्थ है—किसी व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदनात्मक क्षमताओं में ऐसा दीर्घकालिक बाधा जो उसके दैनिक जीवन के कार्यों को करने में अड़चन पैदा करती हो। सरल भाषा में कहें तो यह ऐसी स्थिति होती है जिसमें व्यक्ति को शिक्षा, रोजगार, संचार, या सामाजिक भागीदारी में कठिनाई होती है।


भारतीय कानून के अनुसार दिव्यांगता की परिभाषा:

  • RPWD Act 2016 (Rights of Persons with Disabilities Act, 2016) के अनुसार, दिव्यांग व्यक्ति वह है—
  • "जिसे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी दुर्बलता है जो लंबे समय तक बनी रहती है और उसे समाज में बराबरी के आधार पर भाग लेने में बाधा पहुंचाती है।"

भारतीय कानून (RPWD Act, 2016) के अनुसार दिव्यांगता के प्रकार (Types of Disability):

भारत सरकार ने 21 प्रकार की दिव्यांगता को मान्यता दी है। इन्हें मुख्यतः 5 वर्गों में बांटा जा सकता है:

1. शारीरिक दिव्यांगता (Physical Disability):

  • बौनापन (Dwarfism)
  • अस्थि बाधित (Locomotor Disability)
  • मस्कुलर डिस्ट्रॉफी (Muscular Dystrophy)
  • एसिड अटैक पीड़ित (Acid Attack Victim)
  • सेलीब्रल पाल्सी (Cerebral Palsy)
  • पोलियो या किसी कारणवश अंग का उपयोग न कर पाना

2. बौद्धिक दिव्यांगता (Intellectual Disability):

  • बौद्धिक मंदता (Intellectual Disability)
  • विशिष्ट शिक्षा सम्बन्धी अक्षमता (Specific Learning Disabilities)
  • जैसे – डिस्लेक्सिया, डिस्कैल्कुलिया
  • स्वायत्तता विकार (Autism Spectrum Disorder)

3. मानसिक व्यवहार संबंधी विकार (Mental Behaviour/Illness):

  • मानसिक रोग (Mental Illness)
  • जैसे – अवसाद (Depression), स्किज़ोफ्रेनिया आदि

4. दृश्य और श्रवण दिव्यांगता (Visual & Hearing Disabilities):

  • दृष्टिहीनता (Blindness)
  • कम दृष्टि (Low Vision)
  • बहरापन (Deafness)
  • कम सुनाई देना (Hard of Hearing)
  • बधिर-बोल न सकने वाले (Deaf and Mute)

5. विविध दिव्यांगता (Multiple & Other Disabilities):

  • विविध दिव्यांगता (Multiple Disabilities) – दो या अधिक दिव्यांगताओं का होना
  • थैलेसेमिया
  • हीमोफीलिया
  • सिकल सेल रोग (Sickle Cell Disease)
  • क्रोनिक न्यूरोलॉजिकल कंडीशन – जैसे मल्टीपल स्क्लेरोसिस, पार्किंसन रोग
  • स्पीच एंड लैंग्वेज डिसएबिलिटी (बोलने और भाषा में अक्षम)


Sunday, July 6, 2025

नेटिव भारतीय खेल: CBSE का योगदान नेटिव भारतीय खेलों को बढ़ावा देने में

  नेटिव भारतीय खेल: CBSE का योगदान नेटिव भारतीय खेलों को बढ़ावा देने में

आज के दौर में जहाँ बच्चे मोबाइल और वीडियो गेम्स में अधिक समय बिताने लगे हैं, वहीं ‘भारतीय खेल’ पहल ने पारंपरिक भारतीय खेलों को फिर से जीवन में उतारने की कोशिश की है। यह पहल न सिर्फ बच्चों के शारीरिक विकास के लिए जरूरी है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने में भी मददगार है।


स्कूल के नज़रिए से

  • स्कूल शिक्षा का सिर्फ किताबों तक सीमित रहना अब पुराना विचार है। नई शिक्षा नीति (NEP 2020) ने खेलों को पढ़ाई के बराबर महत्व दिया है। नेटिव भारतीय खेल जैसे कबड्डी, खो-खो, मलखंभ, पिट्ठू, गिल्ली-डंडा आदि को स्कूल खेलों में शामिल किया जा रहा है।
  • इससे बच्चों में टीम भावना, सहनशीलता और नेतृत्व क्षमता का विकास होता है।
  • कई स्कूल अब हर सप्ताह ‘भारतीय खेल दिवस’ मनाते हैं जिससे बच्चों में खेलों के प्रति रुचि बढ़ रही है।

छात्रों के नजरिए से

  • छात्रों के लिए यह पहल बहुत रोमांचक है क्योंकि ये खेल खेलने में आसान होते हैं, ज्यादा संसाधन नहीं चाहिए होते और इन्हें किसी भी मैदान या खाली जगह में खेला जा सकता है।
  • ये खेल बच्चों को शारीरिक रूप से सक्रिय रखते हैं और खेल भावना विकसित करते हैं।
  • साथ ही, ये खेल बच्चों को ग्रुप में मिल-जुलकर खेलने की आदत सिखाते हैं, जिससे दोस्ती और आपसी समझ भी मजबूत होती है।

अभिभावकों के नजरिए से

  • अभिभावक भी अब समझने लगे हैं कि नेटिव भारतीय खेल बच्चों के लिए मोबाइल गेम्स से कहीं बेहतर हैं।
  • गांवों में तो आज भी ये खेल बच्चों की पहली पसंद हैं।
  • अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे स्वस्थ रहें और स्क्रीन टाइम कम करें।
  • अतः वे स्कूलों से आग्रह कर रहे हैं कि इन पारंपरिक खेलों को स्कूल कार्यक्रमों में जरूरी रूप से शामिल किया जाए।
  • कई माता-पिता स्वयं भी बच्चों के साथ ये खेल खेलते हैं और बच्चों को पारंपरिक खेलों की कहानियां सुनाते हैं।

भविष्य में संभावनाएँ और योगदान

  • ‘भारतीय खेल’ पहल से भविष्य में कई संभावनाएँ हैं:
  • ये खेल राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान पा सकते हैं।
  • ग्रामीण प्रतिभाओं को पहचानकर प्रोफेशनल ट्रेनिंग दी जा सकती है।
  • सरकार और स्कूल मिलकर ‘खेल गांव’ बना सकते हैं जहाँ बच्चों को पारंपरिक खेलों की कोचिंग दी जाए।
  • बच्चों में खेलों के माध्यम से कैरियर के नए विकल्प खुल सकते हैं जैसे खेल शिक्षक, कोच या प्रोफेशनल खिलाड़ी।
  • सबसे बड़ी बात, हमारी नई पीढ़ी अपनी जड़ों और संस्कृति से जुड़ी रहेगी।

नेटिव भारतीय खेलों को बढ़ावा देने के लिए CBSE द्वारा उठाए गए कदम   

नई शिक्षा नीति (NEP 2020) के अनुसार

  • CBSE ने नई शिक्षा नीति 2020 को अपनाते हुए खेलों को पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बना दिया है।
  • अब खेल सिर्फ सह-पाठ्यक्रम गतिविधि नहीं बल्कि ‘समग्र विकास’ का आधार माना जा रहा है।
  • CBSE सर्कुलर के अनुसार हर स्कूल में सप्ताह में कम से कम एक दिन ‘खेल दिवस’ रखा जाता है जिसमें नेटिव भारतीय खेलों को प्राथमिकता दी जाती है।

इंट्रा स्कूल और इंटर स्कूल प्रतियोगिताएँ

  • CBSE ने कई क्लस्टर, जोनल और राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित करनी शुरू की हैं।
  • इनमें कबड्डी, खो-खो, मलखंभ, कुश्ती जैसे पारंपरिक खेलों के इवेंट्स शामिल किए जाते हैं।
  • इससे बच्चों में इन खेलों के प्रति रुचि बढ़ती है और ग्रामीण प्रतिभाएँ भी मंच पर आती हैं।

 खेल शिक्षक और कोच नियुक्ति

CBSE स्कूलों में अब फिजिकल एजुकेशन टीचर्स को पारंपरिक खेलों का प्रशिक्षण भी दिया जाता है ताकि वे बच्चों को केवल क्रिकेट या फुटबॉल तक सीमित न रखें, बल्कि गिल्ली-डंडा, पिट्ठू, लंगड़ी, रस्साकशी जैसे खेल भी सिखाएँ।

खेल-आधारित प्रोजेक्ट वर्क

  • कई CBSE स्कूलों में प्रोजेक्ट वर्क के तौर पर भी पारंपरिक खेलों का अध्ययन कराया जाता है — जैसे:
  • किस खेल की उत्पत्ति कहाँ हुई?
  • गाँव में कौन-कौन से खेल खेले जाते हैं?
  • उनकी तकनीक और नियम क्या हैं?
  • इससे बच्चों को खेलों की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जानकारी भी मिलती है।

अभिभावकों और समुदाय को जोड़ना

CBSE स्कूल अब ‘ग्रैंड पैरेंट्स डे’, ‘लोकल गेम्स वीक’ जैसे आयोजन करते हैं। इसमें बच्चे, माता-पिता और दादा-दादी साथ मिलकर पारंपरिक खेल खेलते हैं।

इससे सामुदायिक भागीदारी भी बढ़ती है और खेलों के प्रति अपनापन आता है।

डिजिटल प्लेटफॉर्म पर जागरूकता

CBSE अपने पोर्टल्स और स्कूलों के सोशल मीडिया पर भी नेटिव खेलों से जुड़े वीडियो, नियम और कहानियाँ शेयर करता है। इससे बच्चों को खेलों के नए-नए रूप जानने को मिलते हैं।

निष्कर्ष

CBSE ने यह सुनिश्चित किया है कि शिक्षा प्राप्ति के लिए छात्र  सिर्फ किताबों तक सीमित  न रहे, बल्कि बच्चों के कुल व्यक्तित्व विकास में खेल भी बराबरी से शामिल हों — खासकर भारतीय पारंपरिक खेल, जो हमारी संस्कृति और समाज की पहचान हैं। नेटिव भारतीय खेलों को बढ़ावा देना सिर्फ शारीरिक व्यायाम या मनोरंजन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारे संस्कृति गौरव, सामूहिकता, और स्वस्थ जीवन शैली का प्रतीक है।

छात्र, अभिभावक और स्कूल मिलकर इस पहल को सफल बना सकते हैं। आज जरूरत है कि हम सब मिलकर इन खेलों को फिर से हर गली-मोहल्ले, स्कूल और गांव तक पहुँचाएँ और ‘खेलो इंडिया, बढ़ो इंडिया’ के सपने को साकार करें।

Wednesday, May 28, 2025

शिक्षक के लिए वर्तमान और भविष्य की चुनौतियाँ, विशेषकर प्राइवेट स्कूल के शिक्षकों की समस्याएँ और समाधान

हम सब जानते है कि "शिक्षक" केवल एक शब्द नहीं, वह राष्ट्र निर्माता होने के साथ, संपूर्ण विचारधारा भी  है।  जो संस्कृति और राष्ट्र को उजागर करने के साथ, ज्ञान रूपी दीपक जलाकर समाज से तिमिर को हरता है। लेकिन बदलते समय के साथ-साथ शिक्षण का स्वरूप भी बदल रहा है। आज के युग में, जहाँ तकनीक, प्रतिस्पर्धा और वैश्वीकरण ने शिक्षा क्षेत्र में क्रांति ला दी है, वहीं बदलते सामाजिक, तकनीकी और शैक्षिक परिवेश में शिक्षकों की भूमिका और चुनौतियाँ भी लगातार बदल रही हैं। सरकारी स्कूलों के साथ-साथ प्राइवेट स्कूलों के शिक्षक भी अपने तरीके से कई कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं – जिनमें अधिक कार्यभार, कम वेतन, नौकरी की अनिश्चितता, और अत्यधिक अपेक्षाएँ शामिल हैं। 

आज का यह लेख शिक्षक की उन चुनौतियों पर आधारित है जिनका सामना उन्हें वर्तमान युग में करना पड़ रहा है। अगर सही समय पर इन समस्याओं और चुनौतियों का समाधान नहीं किया गया तो वो दिन दूर नहीं जब लुप्त होते शिक्षक के  स्थान पर एक मशीन कक्षा को संचालित करेगी।    



I. वर्तमान समय की चुनौतियाँ

1. तकनीकी परिवर्तन और डिजिटल साक्षरता की कमी :- आज की शिक्षा प्रणाली में स्मार्ट क्लास, ऑनलाइन शिक्षा, ई-लर्निंग प्लेटफार्म आदि आम हो गए हैं। लेकिन ग्रामीण या अर्ध-शहरी क्षेत्रों में बहुत से शिक्षक डिजिटल उपकरणों और शिक्षण तकनीकों का उपयोग करने में असहज हैं।

समाधान:- शिक्षकों के लिए नियमित रूप से तकनीकी प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन होना चाहिए।

सरकार और निजी संस्थानों को मिलकर डिजिटल संसाधनों तक पहुँच बढ़ानी चाहिए।

2. छात्रों का ध्यान भटकाव और नैतिक मूल्यों की गिरावट :- आज के छात्र मोबाइल, सोशल मीडिया और वीडियो गेम की ओर ज्यादा आकर्षित हैं, जिससे उनका ध्यान पढ़ाई से हट रहा है। इसके साथ ही नैतिकता और अनुशासन में गिरावट देखी जा रही है।

समाधान:- शिक्षक को केवल विषय-वस्तु पढ़ाने वाला नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण करने वाला मार्गदर्शक बनना चाहिए। इसके अतिरिक्त  विद्यालयों में संस्‍कार शिक्षा, योग, और मूल्य-आधारित पाठ्यक्रम को अनिवार्य किया जाना चाहिए।

3. कार्यभार और मानसिक दबाव :- कई संस्थाओं मे शिक्षकों को शिक्षण कार्य के अलावा प्रशासनिक, परीक्षा, सर्वेक्षण और डाटा फीडिंग जैसे कई अतिरिक्त कार्य भी करने पड़ते हैं, जिससे उनका मूल कार्य प्रभावित होता है।

समाधान:- विद्यालयों में कार्य विभाजन और सहायक कर्मचारियों की व्यवस्था की जानी चाहिए।

शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देते हुए, परामर्श एवं मनोवैज्ञानिक सहायता उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

4. अभिभावकों और समाज की अपेक्षाएँ:- आजकल बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा के साथ अभिभावक कि अपेक्षा भी बढ़ जाती हैं कि उनका बच्चा हर क्षेत्र में अव्वल रहे, और इसका पूरा दायित्व शिक्षक पर डालते हैं।

समाधान:- शिक्षकों और अभिभावकों के बीच खुले संवाद की आवश्यकता है। इसके लिए PTM (Parent Teacher Meeting) को एक संवादात्मक और सहयोगी मंच बनाना चाहिए। और इसके लिए अभिभावक को समय-समय पर अपनी भागीदारी  सुनिश्चित करनी चाहिए और खुल कर छात्रों कि समस्या पर बात करें और दोनों मिलकर समस्या का उचित समाधान खोजें।  

II. भविष्य की संभावित चुनौतियाँ

1. कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और रोबोटिक्स का आगमन :- भविष्य में शिक्षा के क्षेत्र में AI आधारित टूल्स और शिक्षण सहायक रोबोट्स का प्रयोग बढ़ेगा, जिससे पारंपरिक शिक्षकों की भूमिका बदल जाएगी।

समाधान:- शिक्षकों को शिक्षण कार्य के अतिरिक्त अपने आप को आधुनिक तकनीक के साथ स्वयं को अपडेट रखना होगा। ताकि वे प्रतिस्पर्धा में पीछे न रहें।

2. 21वीं सदी के कौशलों की माँग:- अब सिर्फ पढ़ाई ही पर्याप्त नहीं है, छात्रों को समस्या समाधान, संचार कौशल, टीमवर्क, नवाचार आदि जीवन कौशलों को भी सिखाने की भी आवश्यकता है। ताकि वह आने वाले चुनौतियों से लड़ने मे खुद को सक्षम बना सकें। 

समाधान:-  छात्रों को भविष्य कि चुनौतियों से निपटने के लिए, सबसे पहले  शिक्षकों को स्किल-बेस्ड ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। इसके साथ ही पाठ्यक्रम में प्रोजेक्ट-आधारित शिक्षण, स्टोरीटेलिंग, डिबेट और रोल-प्ले को शामिल किया जाना चाहिए।

3. शिक्षा का वैश्वीकरण और प्रतिस्पर्धा:- ऑनलाइन कोर्सेज, अंतरराष्ट्रीय पाठ्यक्रम और विदेशी विश्वविद्यालयों की पहुँच ने शिक्षा क्षेत्र में वैश्विक प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है।

समाधान:- शिक्षकों को अंतरराष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली की समझ होनी चाहिए। उन्हें भाषा दक्षता, विशेष रूप से अंग्रेजी और डिजिटल साक्षरता, में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।

प्राइवेट स्कूल के शिक्षकों की विशेष चुनौतियाँ

1. अस्थिर नौकरी और अनुबंध आधारित रोजगार:- प्राइवेट स्कूलों में एक शिक्षक के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती अपनी स्थान बचाने की होती है। अधिकांश स्कूल उन्हें कॉन्ट्रैक्ट बेसिस पर रखते हैं, जहाँ स्थायी नियुक्ति नहीं होती।

समाधान:- सरकार को निजी स्कूलों के लिए न्यूनतम सेवा शर्तों को अनिवार्य करना चाहिए।  इसके अतिरिक्त शिक्षकों के लिए कर्मचारी अधिकार संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता है।

2. कम वेतन और असमान वेतन संरचना:- बढ़ती हुई महंगाई के समय मे कई निजी विद्यालयों में शिक्षकों को सरकारी मानकों से भी बहुत कम वेतन दिया जाता है। कई बार वेतन समय पर भी नहीं मिलता। इसकी वजह से उन्हें अपने परिवार को चलाने के लिए कर्जा लेना पड़ता है। या फिर अपना शिक्षण व्यवसाय छोड़ कर दूसरा व्यवसाय करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। 

समाधान:- स्कूलों के लिए एक न्यूनतम वेतन मानक तय किया जाना चाहिए, जिसकी निगरानी शिक्षा विभाग करे।

शिक्षकों को यूनियन या संगठन के माध्यम से सामूहिक रूप से अपनी आवाज़ उठानी चाहिए।

3. अत्यधिक कार्यभार और बहुउद्देश्यीय भूमिकाएँ:- शिक्षण कार्य के अतिरिक्त शिक्षक को अक्सर शिक्षण के अलावा अतिरिक्त कार्यभार मे संगलित किया जाता है। जैसे - विपणन, प्रवेश प्रक्रिया, अभिभावक संपर्क, यहाँ तक कि फीस की वसूली जैसे कार्यों में भी लगाए जाते हैं। जिसके चलते उनका शिक्षण कार्य समय पर पूर्ण नहीं हो पाता और इसका प्रभाव छात्रों के प्रदर्शन पर भी पड़ता है। 

समाधान:- शिक्षण कार्य और गैर-शैक्षणिक कार्यों के बीच स्पष्ट विभाजन होना चाहिए।

स्कूल प्रबंधन को शिक्षकों के पेशेवर गरिमा का सम्मान करना चाहिए।

4. प्रदर्शन आधारित दबाव और छात्र परिणामों की ज़िम्मेदारी:- कई निजी स्कूलों में शिक्षक पर दबाव डाला जाता है कि वे हर हाल में अच्छे परिणाम लाएँ, चाहे छात्र की तैयारी कैसी भी हो। इससे उनका मानसिक तनाव बढ़ता है।

समाधान:- स्कूलों को केवल परिणाम-आधारित मूल्यांकन से हटकर समग्र विकास और शिक्षण प्रक्रिया पर ध्यान देना चाहिए।  शिक्षकों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सहायता और परामर्श केंद्र होने चाहिए।

III. समाधान की दिशा में सामूहिक प्रयास

1. नीति-निर्माताओं की भूमिका

  • सरकार को शिक्षा बजट में वृद्धि करनी चाहिए।
  • शिक्षकों की भर्ती, प्रशिक्षण और पदोन्नति की प्रक्रिया को पारदर्शी और गुणात्मक बनाना चाहिए।

2. समाज और अभिभावकों की भूमिका

  • समाज को शिक्षक को सम्मान और सहयोग देना चाहिए।
  • अभिभावकों को भी शिक्षा प्रक्रिया में सकारात्मक भागीदारी निभानी चाहिए।

3. शिक्षक की स्व-प्रेरणा और समर्पण

  • शिक्षकों को स्वयं को निरंतर सीखते रहने की आदत डालनी चाहिए।
  • वे केवल जानकारी नहीं, बल्कि प्रेरणा और दिशा देने वाले बनने चाहिए।
शिक्षक किसी भी राष्ट्र की रीढ़ होते हैं। चाहे फिर वह सरकारी विद्यालय में कार्यरत हों या निजी विद्यालय में, 
अगर शिक्षक सक्षम, सशक्त और संवेदनशील होंगे, तो राष्ट्र भी सशक्त होगा। वर्तमान और भविष्य की चुनौतियाँ कठिन ज़रूर हैं, लेकिन असंभव नहीं। अगर नीति-निर्माता, समाज, अभिभावक और शिक्षक मिलकर प्रयास करें, तो इन चुनौतियों को अवसरों में बदला जा सकता है। शिक्षक को तकनीक के साथ संतुलन, ज्ञान के साथ संवेदना और अनुशासन के साथ नवाचार की राह पर आगे बढ़ना होगा।

Tuesday, May 27, 2025

क्लासरूम की चुनौतियाँ और एक शिक्षक द्वारा उनके समाधान


हम सभी जानते है कि विद्यालय शिक्षा का एक आधार स्तंभ है, और कक्षा (क्लासरूम) उसका केंद्र। लेकिन एक शिक्षक के लिए कक्षा को सुचारु रूप से संचालित करना और सीखने कि प्रक्रिया को सकारत्म्क रूप प्रदान करना, चुनौतियों से भरा होता है। इन चुनौतियों का समाधान ढूंढ़ना एक शिक्षक कि प्राथमिकता तो है ही इसके साथ यह  शिक्षक की दक्षता का परिचायक भी होता है, यह विद्यार्थियों के समग्र विकास में  सहायक होने के साथ कक्षा मे एक सकारात्म्क वातावरण का भी निर्माण करता है। 

आज इस लेख के माध्यम से हम कक्षा की प्रमुख चुनौतियों और उनके समाधान पर प्रकाश डालेंगे।



क्लासरूम की प्रमुख चुनौतियाँ:

विद्यार्थियों में विविधता :- एक ही कक्षा में भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमि, क्षमताओं, भाषाओं और रुचियों वाले विद्यार्थी होते हैं। ऐसे में सभी के अनुकूल शिक्षा देना चुनौतीपूर्ण होता है।

अनुशासन की समस्या :- कई बार विद्यार्थी अनुशासनहीन व्यवहार करते हैं जैसे–शोर मचाना, बात न सुनना, या पढ़ाई में रुचि न लेना।

ध्यान न लगना या एकाग्रता की कमी ;- टेक्नोलॉजी, सामाजिक समस्याएँ या व्यक्तिगत तनाव के कारण विद्यार्थी ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते।

सीखने में कठिनाइयाँ :- कुछ छात्रों को पढ़ने, लिखने या समझने में विशेष कठिनाई होती है, जिसे समय पर पहचानना और सहायता देना जरूरी होता है।

संसाधनों की कमी :- कई विद्यालयों में पर्याप्त शिक्षण सामग्री, तकनीकी उपकरण या शांतिपूर्ण वातावरण की कमी रहती है।

मूल्य आधारित शिक्षा की कमी :- केवल पाठ्यक्रम पर ध्यान देने के कारण नैतिक शिक्षा, सहिष्णुता, सहयोग जैसे मूल्यों की उपेक्षा हो जाती है।


एक शिक्षक द्वारा समाधान के उपाय:

समावेशी शिक्षण (Inclusive Teaching) :- सभी छात्रों की आवश्यकताओं को समझते हुए शिक्षण पद्धति में विविधता लाना चाहिए – जैसे कि समूह कार्य, चित्रों के माध्यम से समझाना, या व्यक्तिगत मार्गदर्शन देना।

सकारात्मक अनुशासन :- दंड के बजाय संवाद, प्रोत्साहन और सकारात्मक व्यवहार को बढ़ावा देकर अनुशासन बनाए रखा जा सकता है।

रुचिकर एवं संवादात्मक शिक्षण विधियाँ :- गतिविधियों, कहानियों, नाट्य रूपांतरण और प्रश्नोत्तर पद्धति के ज़रिए छात्रों की एकाग्रता बढ़ाई जा सकती है।

समय पर मूल्यांकन और सहायता :- छात्रों की कठिनाइयों को पहचानने के लिए नियमित मूल्यांकन जरूरी है। कमजोर छात्रों को अतिरिक्त सहायता देना प्रभावी हो सकता है।

उपलब्ध संसाधनों का रचनात्मक उपयोग :- सीमित साधनों में भी शिक्षक अपनी रचनात्मकता से प्रभावी शिक्षण कर सकते हैं – जैसे चार्ट, स्थानीय उदाहरण, या स्वयं बनाई गई शिक्षण सामग्री।

नैतिक शिक्षा का समावेश :- हर पाठ के साथ यदि जीवन मूल्यों को भी जोड़ा जाए, तो छात्र सामाजिक और नैतिक दृष्टि से भी सशक्त बनते हैं।

एक शिक्षक केवल ज्ञान का दाता नहीं, बल्कि समाज का निर्माता भी होता है। कक्षा की चुनौतियाँ कठिन अवश्य होती हैं, लेकिन शिक्षक की सूझबूझ, धैर्य, रचनात्मकता और संवेदनशीलता इनका समाधान निकाल सकती है। एक प्रेरणादायी और जागरूक शिक्षक ही कक्षा को सीखने और परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम बना सकता है।

Saturday, May 17, 2025

भौतिक युग में स्थायी सुख की खोज: एक मिथ्या आकर्षण

 भौतिक युग में स्थायी सुख की खोज: एक मिथ्या आकर्षण


आज का युग विज्ञान और तकनीक की तेज़ रफ्तार से बदलता हुआ भौतिक युग है। हर इंसान सुख, सुविधा और समृद्धि की खोज में व्यस्त है। जीवन की दौड़ इतनी तेज हो चुकी है कि लोग यह भूल चुके हैं कि वे आखिर किस मंज़िल की ओर बढ़ रहे हैं। इस अंधी दौड़ में "स्थायी सुख" की तलाश एक ऐसी कल्पना बनकर रह गई है, जो हाथी के दिखावे वाले दाँतों की तरह है—दिखाने के लिए कुछ और, उपयोग में कुछ और।

भौतिक सुखों की विशेषता ही यही है कि वे क्षणिक होते हैं। एक नई वस्तु की प्राप्ति हमें कुछ समय के लिए आनंद देती है, लेकिन समय के साथ वह आनंद भी समाप्त हो जाता है, और हम अगली चीज़ की तलाश में लग जाते हैं। यह एक अंतहीन चक्र है, जो कभी भी स्थायीत्व नहीं दे सकता।

वास्तव में, जब यह भौतिक संसार स्वयं अस्थायी है, तो इसमें से स्थायी सुख की कामना करना अपने आप में एक विरोधाभास है। यह जगत परिवर्तनशील है—आज जो है, वह कल नहीं रहेगा। शरीर, वस्तुएं, संबंध—all are bound by time. ऐसे में किसी भी भौतिक वस्तु में स्थायी सुख की खोज करना केवल भ्रम है।

क्या भौतिक जगत  मे  स्थायी सुख संभव है? 

भगवद्गीता से लिया गया यह श्लोक स्थायी सुख, आत्मज्ञान, और भौतिक सुखों की क्षणिकता को गहराई से दर्शाता है:

श्लोक (भगवद्गीता 2.14):

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥

भावार्थ:

हे अर्जुन! इन्द्रियों और विषयों के संपर्क से उत्पन्न शीत-गर्मी, सुख-दुःख आदि क्षणिक होते हैं। वे आते हैं और चले जाते हैं, इसलिए तू उन्हें सहन कर।

यह श्लोक स्पष्ट करता है कि भौतिक सुख-दुख अस्थायी हैं, वे समय के साथ आते-जाते रहते हैं। इनसे ऊपर उठकर जो आत्मज्ञान, शांति और संतुलन प्राप्त होता है, वही वास्तविक और स्थायी सुख है।

स्थायी सुख की प्राप्ति के लिए हमें कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने चाहिए:

आत्मचिंतन और आत्मज्ञान – स्वयं को समझना, अपनी इच्छाओं की गहराई में जाना और यह जानना कि हमें वास्तव में क्या चाहिए।

संतोष और कृतज्ञता – जो कुछ हमारे पास है, उसमें संतोष पाना और कृतज्ञ होना एक बड़ा कदम है स्थायीत्व की ओर।

योग, ध्यान और साधना – मन को स्थिर और शांत करना, जिससे आंतरिक सुख की अनुभूति संभव हो सके।

सत्संग और आध्यात्मिक मार्गदर्शन – सकारात्मक संगति और आध्यात्मिक मार्ग हमें सत्य की ओर ले जाते हैं।


अंत मे हम कह सकते है कि  भौतिक जगत में स्थायी सुख की तलाश एक छलावा है, जो कि एक मृगतृष्णा की भाँति है। परंतु ऐसा नहीं है कि हम स्थायी सुख प्राप्त नहीं कर सकते यदि हम अपने भीतर झाँकें, अपने जीवन में संतुलन और चेतना लाएँ, तो वही जीवन, जो आज असंतोष से भरा प्रतीत होता है, स्थायी आनंद का स्रोत बन सकता है। स्थायी सुख का मार्ग बाहर नहीं, भीतर है—और उस मार्ग पर चलने के लिए हमें स्वयं से प्रयास करने होंगे।


भूपेंद्र रावत 

17.05.2025 

Tuesday, April 22, 2025

ऑफिस पॉलिटिक्स (Office Politics) हर कार्यस्थल पर एक आम समस्या

आजकल ऑफिस पॉलिटिक्स (Office Politics) हर कार्यस्थल पर एक आम समस्या बन चुकी है, और यह ना सिर्फ काम के माहौल को बिगाड़ती है बल्कि व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर डाल सकती है। आइए इस लेख के माध्यम से इसे विस्तार से समझते हैं:

ऑफिस पॉलिटिक्स क्या है?

ऑफिस पॉलिटिक्स का मतलब है—ऐसा व्यवहार या गतिविधियाँ जो कार्यस्थल पर किसी व्यक्ति या समूह को फायदा, या फिर दूसरों की हानि पहुंचाने के उद्देश्य से की जाती हैं। इस तरह के व्यवहार आमतौर पर शक्ति, प्रभाव, पद, या मान्यता पाने के लिए किया जाता है।

इसमें शामिल हो सकते हैं:

  • चुगली करना (Backbiting)
  • दूसरों की सफलता को दबाना
  • ज़रूरत से ज़्यादा बॉस की चापलूसी
  • जानबूझकर किसी की गलती उजागर करना
  • किसी के खिलाफ माहौल बनाना

ऑफिस पॉलिटिक्स के दुष्परिणाम: ऑफिस मे इस तरह के नकारात्मक वातावरण  के कारण इसका प्रभाव  कर्मचारियों के मानसिक,और  शारीरिक स्वास्थ्य  के साथ उनकी Productivity पर भी देखने को मिलता है। इसके अतिरिक्त ऑफिस पॉलिटिक्स के मुख्य दुष्परिणाम इस प्रकार है।   

  • काम में मन न लगना
  • आत्मविश्वास में कमी
  • टीम वर्क में बाधा
  • मानसिक तनाव और निराशा
  • योग्य व्यक्ति का हतोत्साहित होना

ऑफिस पॉलिटिक्स से निपटने के उपाय:

1. पेशेवर (Professional) बने रहें

  • अपनी बातों और व्यवहार में हमेशा शालीनता रखें।
  • किसी के बहकावे में न आएं और न ही बेवजह किसी विवाद में पड़ें।

2. गॉसिप से दूरी बनाए रखें

  • ऑफिस में होने वाली चुगली या अफवाहों में भाग न लें।
  • यदि कोई आपके पास आकर किसी की बुराई करता है, तो उस चर्चा को बढ़ावा न दें।

3. अपने काम पर फोकस करें

  • अपनी जिम्मेदारियों को ईमानदारी से निभाएं।
  • आपका काम ही आपकी पहचान बनाता है।

4. स्मार्ट तरीके से संवाद करें

  • जब भी किसी कठिन स्थिति का सामना हो, शांत रहकर और तथ्यों के आधार पर बात करें।
  • बातों को भावनात्मक नहीं, तार्किक ढंग से रखें।

5. सभी से संतुलित व्यवहार रखें

  • किसी एक ग्रुप में न फँसें, सभी के साथ विनम्रता से पेश आएं।
  • ऑफिस फ्रेंडशिप हो, लेकिन प्रोफेशनल सीमाएँ भी स्पष्ट हों।

6. अपना नेटवर्क बनाएं

  • अपने जैसे सकारात्मक और भरोसेमंद लोगों से जुड़ें।
  • इससे आपको मानसिक समर्थन भी मिलेगा और पॉलिटिक्स से निपटना आसान होगा।

7. सीनियर या एचआर से बात करें (यदि मामला बढ़ जाए)

अगर किसी की गतिविधियाँ आपको बार-बार नुकसान पहुँचा रही हैं, तो उचित तरीके से सीनियर या HR से बातचीत करें।

निष्कर्ष:

ऑफिस पॉलिटिक्स को पूरी तरह से रोकना मुश्किल हो सकता है, लेकिन समझदारी, संयम और प्रोफेशनल रवैये से आप इससे सुरक्षित रह सकते हैं। सबसे ज़रूरी है—खुद को सही बनाए रखना, भले ही परिस्थिति कितनी भी गलत क्यों न हो।


Tuesday, March 11, 2025

बच्चों के आक्रामक व्यवहार: कारण और समाधान

परिवर्तन संसार का नियम है, कई बार यह परिवर्तन समाज को सही मार्ग की ओर अग्रसर करता है तो कई बार इसका दुष्प्रभाव समाज मे देखने को मिलता है। आज हम इस लेख के माध्यम से बच्चों के व्यवहार मे होने वाले   नकारात्मक परिवर्तन की बात करने जा रहे है। बच्चों में आक्रामक (Aggressive) या हिंसक (Violent) व्यवहार आजकल एक आम चिंता का विषय बन गया है। यह न केवल उनके व्यक्तिगत विकास बल्कि उनके सामाजिक और पारिवारिक संबंधों पर भी प्रभाव डाल सकता है। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, जिनमें जैविक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारक शामिल हैं।




बच्चों में आक्रामकता के मुख्य कारण:

1. पारिवारिक वातावरण

✅ परिवार में तनाव: माता-पिता के बीच झगड़े, तलाक, या घरेलू कलह का बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

✅ अत्यधिक अनुशासन या लापरवाही: बहुत ज्यादा सख्ती करने या बच्चे को पूरी तरह आज़ाद छोड़ देने से वे विद्रोही हो सकते हैं।

✅ माता-पिता का आक्रामक व्यवहार: यदि माता-पिता खुद गुस्सैल या हिंसक हैं, तो बच्चा भी उसी व्यवहार को सीख सकता है।

2. डिजिटल मीडिया और हिंसक कंटेंट

✅ वीडियो गेम और टीवी शो: हिंसक वीडियो गेम, कार्टून और वेब सीरीज़ देखने से बच्चे आक्रामक व्यवहार की नकल कर सकते हैं।

✅ सोशल मीडिया का प्रभाव: साइबर बुलिंग या ऑनलाइन नकारात्मक कंटेंट देखकर बच्चे चिड़चिड़े और गुस्सैल हो सकते हैं।

3. भावनात्मक और मानसिक कारण

✅ भावनाओं को सही से व्यक्त न कर पाना: कई बच्चे अपनी नाराजगी या दुःख को शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाते और गुस्से के रूप में प्रतिक्रिया देते हैं।

✅ असुरक्षा की भावना: जब बच्चे को पर्याप्त प्यार और ध्यान नहीं मिलता, तो वे आक्रामक हो सकते हैं।

✅ तनाव और दबाव: पढ़ाई, प्रतिस्पर्धा, या सामाजिक अपेक्षाओं के कारण वे चिड़चिड़े हो सकते हैं।

4. हार्मोनल और जैविक कारण

✅ हार्मोनल बदलाव: किशोरावस्था में टेस्टोस्टेरोन और एड्रेनालिन हार्मोन बढ़ने से गुस्सा जल्दी आ सकता है।

✅ मस्तिष्क में असंतुलन: कुछ न्यूरोलॉजिकल कारण, जैसे ADHD (Attention Deficit Hyperactivity Disorder), भी आक्रामकता का कारण बन सकते हैं।

5. सामाजिक प्रभाव और संगति

✅ गलत संगति: यदि बच्चे के दोस्त आक्रामक हैं, तो वह भी वैसा ही व्यवहार अपना सकता है।

✅ समाज में बढ़ती हिंसा: समाचारों, फिल्मों और सोशल मीडिया के माध्यम से हिंसा देखने से बच्चों में आक्रामकता बढ़ सकती है।

बच्चों के आक्रामक व्यवहार को कैसे सुधारें?

✔️ सकारात्मक पालन-पोषण (Positive Parenting): प्यार और धैर्य के साथ बच्चों को सही दिशा दें।

✔️ भावनात्मक समझ बढ़ाएँ: उन्हें अपनी भावनाएँ खुलकर व्यक्त करने का मौका दें।

✔️ संवाद करें: बच्चों से खुलकर उनकी भावनाओं और समस्याओं पर चर्चा करें।

✔️ मीडिया पर नियंत्रण रखें: हिंसक गेम और कंटेंट देखने से बचाएँ।

✔️ शारीरिक गतिविधियों में लगाएँ: खेल, योग और ध्यान से गुस्से को नियंत्रित किया जा सकता है।

✔️ प्रोत्साहित करें: अच्छे व्यवहार के लिए उनकी सराहना करें और नकारात्मकता को सुधारने की कोशिश करें।

निष्कर्ष

बच्चों में आक्रामकता के पीछे कई कारण हो सकते हैं, लेकिन सही मार्गदर्शन और प्यार भरे वातावरण से इसे बदला जा सकता है। माता-पिता, शिक्षक और समाज को मिलकर बच्चों की मानसिक और भावनात्मक सेहत का ध्यान रखना चाहिए ताकि वे एक संतुलित और खुशहाल जीवन जी सकें। 😊

Monday, January 20, 2025

दम तोड़ते रिश्तों की वजह

रिश्ते अक्सर कच्चे धागे की डोर के समान होते है। अगर रिश्तों की नींव कमजोर हो तो वह रिश्ता अधिक दिनों तक टिक नहीं सकता। भारतीय समाज और संस्कृति की इन रिश्तों की कड़ी मे पति और पत्नी का रिश्ता सभी रिश्तों मे से एक पवित्र रिश्ता माना गया है और यह नाजुक कड़ी के समान होता है। लेकिन मानो आज के भारतीय समाज के रिश्तों को पाश्चत्य स्भ्यता की नज़र सी लग गयी हो। आधुनिक और सव्वालंबी, बनने की इस दौड़ मे आज रिश्ते पीछे छूटते जा रहे है और बच रहा है, एक टूटा परिवार लेकिन,जहाँ एक ओर विवाह से पूर्व कई तरह की जानकारी एकत्रित या छान-बिन की जाती है। उसके बावजूद रिश्ते कुछ ही दिनों या वर्षों मे टूट जाते है। लेकिन इतनी सावधानी बरतने के पश्चात भी आखिरकार, ऐसा क्यों हो रहा है? 

रिश्तों को मजबूत बनाने वाली सबसे मजबूत कड़ी का नाम है "विश्वास" और इस विश्वास की कड़ी को कमजोर बनाता है संदेह करने की बीमारी या आदत। किसी रिश्ते के बीच अगर संदेह उत्पन्न हो जाये तो समय के साथ धीरे धीरे वो रिश्ता कमजोर होने लगता है। जिसकी वजह से रिश्ते एक दूसरे मे बोझ बन जाते है। और उन बोझ से लदे हुए रिश्तों को ज्यादा दूर तक ले जाना सबके लिए मुश्किल हो जाता है। जिसकी वजह से रिश्ते टूट जाते है या फिर समाज को दिखाने के लिए मात्र छलावा बन कर रह जाते है। 

इसके अतिरिक्त रिश्तों मे आपसी सहयोग न होना, गलतफ़हमी, धोखा देना, सहनशील न होना तथा आपस मे बाते न करना आदि भी रिश्ता टूटने के अहम कारणों मे से एक होता है। लेकिन इन सब कारणों के बारे मे पता होने के बावजूद भी अक्सर हम इन सभी को अनदेखा कर देते है और सोचते है कि वक़्त के साथ सभी समस्या और परेशानी का हल अपने आप ही हो जाएगी। लेकिन वास्तविक जीवन मे वक़्त के साथ  ये समस्याएं कम होने के बावजूद बढ़ती जाती है। अगर समय रहते उचित कदम उठा लिया जाये तो रिश्तों को टूटने से बचाया जा सकता है। 

रिश्तों की डोर को मजबूत बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है अपने अहं को त्यागना और एक  दूसरे को समझना, स्वीकार करना और हर एक विषय पर खुल कर बाते करना आदि। बातों से ही हमें सारे प्र्श्नो के जवाब मिल सकते है। कई बार हम प्र्श्नो का बिना जवाब जाने अपनी एक अलग  विचारधारा बना लेते है जिससे  हमारे विचार हमारे रिश्तों पर हावी होने लग जाते है और सिसकिया लेते खोखले रिश्ते दम तोड़ देते है जो अपनी मंज़िल तक  पहुँच नहीं पाते।   



भूपेंद्र रावत  

 

Chapter: Democratic Rights – (Class 9 Civics)

 Chapter: Democratic Rights – (Class 9 Civics) 1. Life Without Rights Rights are what make us free and equal in a democracy. Without rights,...