Monday, August 25, 2025

स्त्री का घर

 स्त्री का घर


ईंट–ईंट जोड़कर उसने,

आंसुओं से गारा बनाया,

रक्त और पसीने से गढ़ी दीवारें,

फिर भी मेहनताना मिला—

कौड़े, ताने और तिरस्कार।

तन की थकान, मन की पीड़ा,

के साथ दर्द से गूंजता, हर स्वर

फिर भी त्यागा नहीं उसने अपना घर,

क्योंकि उस घर की सांसों में

बसा था, उसका अस्तित्व ।


पुरुष हमेशा की तरह रहे केंद्र में,

स्त्री को ठुकराते, दबाते,

प्रगतिशीलता के नकाब तले

बरसाते रहे उपेक्षा की चोट।


समानता के नारे,

संसद और चैनलों में गूंजे,

पर जमीनी धरातल पर

स्त्री धकेली जाती रही गर्त में,

बनाई जाती रही

वस्तु, सिर्फ उपभोग की ।


हक़ीक़त में बदलाव था 

कल्पनाओं से परे, जैसे होती है

कहानी परियों की टूटते तारों की। 

 

इन्सानो की बस्ती मे 

बदलाव का झूठा सपना लिए

स्त्री हर बार,होती रही शिकार, 

वासना का, कभी घरों मे तो कभी समाज मे   

छलनी होते समाज मे 

बिखरती गयी उम्मीदें 

और शेष रहा, दिलासा।


जख्म से सने जिस्म, 

दबी और कुचली  हुई आवाज़ के साथ 

फिर भी उठती,  रही स्त्री हर बार 

अपने आँचल में नए सूरज की रोशनी लिए।

इतिहास गवाह है कि 

घर की नींव, समाज की आत्मा,

और भविष्य की धड़कन

वही है—स्त्री।

No comments:

Post a Comment

मैं लिखूँगा तुम्हें

 मैं लिखूँगा तुम्हें मैं गढ़ूँगा क़सीदे तुम्हारे — तुम्हारे इतराने पर, तुम्हारे रूठ कर चले जाने पर, तुम्हारी मुस्कान में छुपी उजली धूप पर, औ...