Thursday, October 16, 2025

मैं अब खुद से ही अनजान हो गया हूँ

 मैं अब खुद से ही अनजान हो गया हूँ


मैं अब खुद से ही अनजान हो गया हूँ,

मानो अपने ही घर में मेहमान हो गया हूँ।


भाग-दौड़ की इस ज़िंदगी में

दफ़न कर दीं मैंने, अपनी सारी इच्छाएँ,

चलता हूँ मैं, पर भीतर से —

मानो चलता-फिरता श्मशान हो गया हूँ।


क्या, किसने सुनी कभी मेरी बातें यहाँ?

हर जवाब में बस सन्नाटा ही पाया मैंने।

मैं इस सफ़र का मुसाफ़िर अब बेजान हो गया हूँ,

लोगों की सुनते-सुनते

खुद अपनी आवाज़ से अनजान हो गया हूँ।


टूट कर गिरा हूँ जब से इस धरा पर,

तब से आसमां के लिए मेहमान हो गया हूँ।

जिसने भी देखा, मुँह फेर लिया —

जबसे मैं ज़रूरतमंद इंसान हो गया हूँ।

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मैं अब खुद से ही अनजान हो गया हूँ

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