इंसानियत का असली अर्थ
एक सुहावनी सुबह थी। आज घर के सभी सदस्यों की छुट्टी एक साथ पड़ी थी। सबने तय किया कि आज का दिन घर पर न बिताकर कहीं बाहर घूमने चलेंगे। काफी सोच-विचार के बाद सबने निश्चय किया कि वे आज विभिन्न धर्मस्थलों के दर्शन करने जाएंगे।
सुबह-सुबह सब तैयार हुए, प्रसन्न मन से निकले और दिनभर अलग-अलग मंदिरों और तीर्थस्थलों में घूमते रहे। हर कोई अपने-अपने तरीके से आनंद ले रहा था। परंतु परिवार का सबसे छोटा सदस्य—आरव—चुपचाप सब कुछ देख रहा था।
वह देख रहा था कि मंदिरों के बाहर लोग बड़ी-बड़ी गाड़ियों से उतरते हैं, महँगे कपड़े पहने हुए हैं, लेकिन जो गरीब और जरूरतमंद वहाँ खड़े थे, कोई उनकी ओर देखना तक पसंद नहीं करता। कुछ लोग तो उन्हें दुत्कार देते, मज़ाक उड़ाते, और बिना वजह अपमानित करते।
आरव का मन यह सब देखकर बहुत बेचैन हो उठा। उसे लगा जैसे इंसानियत कहीं खो गई है।
शाम को सब लोग घर लौटे। सभी खुश थे कि दिन अच्छा बीता, पर आरव का चेहरा उदास था। दादी ने पूछा,
“क्या हुआ बेटा? तुम तो पूरे दिन चुप-चुप रहे, घूमने में मज़ा नहीं आया क्या?”
आरव कुछ देर चुप रहा, फिर बोला —
“दादी, मंदिरों में लोग भगवान से आशीर्वाद लेने तो आए थे, लेकिन वहाँ जो गरीब लोग मदद के इंतज़ार में थे, उनकी ओर किसी ने देखा तक नहीं। क्या भगवान केवल उन लोगों के लिए हैं जिनके पास पैसे हैं?”
सब उसके शब्द सुनकर चौंक गए। इतनी छोटी उम्र में ऐसी बात!
दादाजी मुस्कुराए और बोले —
“बेटा, एक कहावत है — ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए।’
अगर समाज में हम केवल पैसा और अहंकार बोएँगे, तो फल के रूप में हमें इंसानियत नहीं मिलेगी।”
आरव ने हैरानी से पूछा, “दादू, इसका मतलब?”
तभी दादी ने प्यार से उसका सिर सहलाते हुए कहा —
“इसका मतलब यह है बेटा कि जैसा संस्कार हम अपने बच्चों को देंगे, वैसा ही समाज बनेगा। आज लोग पैसे कमाने की दौड़ में इतने व्यस्त हो गए हैं कि उन्हें सहानुभूति और करुणा सिखाने का समय ही नहीं मिलता। हम सब उस खजूर के पेड़ जैसे बन गए हैं — जो ऊँचा तो बहुत होता है, लेकिन न किसी को छाया देता है, न फल आसानी से।”
फिर उन्होंने मीरा बाई के शब्दों में कहा —
“बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर,
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।”
दादाजी बोले —
“इसलिए हमें चाहिए कि हम सिर्फ ‘बड़े आदमी’ नहीं, बल्कि ‘अच्छे इंसान’ बनने की कोशिश करें। पैसे से भले सुख मिल जाए, पर सच्ची शांति तो तभी मिलेगी जब हम दूसरों की मदद करेंगे।”
आरव के चेहरे पर अब मुस्कान लौट आई। उसने निश्चय किया कि वह आगे से जब भी किसी जरूरतमंद को देखेगा, उसकी मदद जरूर करेगा—भले ही छोटी सी ही क्यों न हो।
कहानी की सीख:
धर्म की शुरुआत मंदिर से नहीं, इंसानियत से होती है। अगर हम अच्छे इंसान बन गए, तो वही सबसे बड़ा धर्म है।
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