जंगलों को काट कर,
बेजुबानों को किया गया बेघर।
पेड़ों की छाँव में रहने वाले जीवों,
का छीन लिया घर।
बेजुबानों के मौन को,
समझ नहीं सका कोई
जिसने समझा उनके मौन को।
और जो बने उनकी आवाज़,
उन्हें कहा गया देशद्रोही ।
सरकार और पूंजीपतियों ने
बाँट लिया मुनाफा आधा-आधा।
विकास के नाम पर लूटा गया,
प्रकृति का हर कोना और राह।
कटे जंगलों के बदले,
गमलों में उगाए गए वृक्ष।
फिर सरकारी कागज़ों में,
बसा दिया गया,
एक नकली वन-प्रदेश।
दस्तावेज़ों में नहीं रोया कभी कोई हिरण,
समाचारों में भी कभी नहीं
दिखाई गयी परिंदों की चीख।
कभी नहीं दिखाया गया वो पल,
जब एक मांद उजड़ गई चुपचाप।
कभी किसी रिपोर्ट में नहीं आया,
वो घायल हाथी का आह भरना।
कभी नहीं छापा गया अख़बार में,
एक पंछी का पंख तुड़वाकर गिरना।
क्या हम इंसानों ने कभी
समझा बेजुबानों की
पीड़ा को?
बेजुबान है तो क्या?
वो भी तो है, इस धरा के जीव,
क्या मौन आंसू कोई चीख नहीं रखते?
क्यों ,हम उनके जीवन का कोई मोल नहीं समझते?
भूपेंद्र रावत
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