"पीढ़ियों के बीच संवाद की ज़रूरत"
आज के समय में अक्सर माता-पिता और शिक्षक यह शिकायत करते नज़र आते हैं कि “आजकल के बच्चे बड़ों की बात नहीं मानते।” घर में भी यही स्थिति होती है और स्कूल में भी। कभी कोई छात्र माता-पिता की बातों को अनसुना कर देता है, तो कभी शिक्षक की सलाह को हल्के में ले लेता है।
ऐसे में बड़े अकसर यह तुलना करने लगते हैं — “हमारे ज़माने में तो हम बड़ों की आज्ञा का पालन करते थे, इतने बदतमीज़ नहीं थे।” पर क्या यह तुलना सचमुच उचित है? क्या हमने अपने युवावस्था के दिनों को भुला दिया है?
युवावस्था – एक उफनता सागर
हर इंसान अपने किशोर या युवा दिनों में एक अलग ही दुनिया में जीता है — जहाँ जोश होता है, सपने होते हैं, और खुद को समझने की चाह होती है। इस उम्र में बच्चा सिर्फ़ “ना” सुनना नहीं चाहता, वह यह जानना चाहता है कि “क्यों ना?”वह सवाल करता है, बहस करता है, और अपनी पहचान तलाशता है। यह लापरवाही नहीं, बल्कि एक स्वाभाविक मानसिक विकास की प्रक्रिया है।
घर का वातावरण – पहली पाठशाला
माता-पिता का रोल यहाँ सबसे अहम है। अगर बच्चा आपकी बात नहीं सुन रहा, तो शायद उसने सुना ही नहीं —
क्योंकि आपने “कहा” ज़्यादा और “सुना” कम। बच्चों से संवाद केवल आदेश देने से नहीं, बल्कि सुनने और समझने से बनता है। अगर माता-पिता बच्चों के विचार जानने की कोशिश करें, तो वे पाएँगे कि उनके भीतर भी संवेदनाएँ, विचार और सम्मान है — बस उसे सही दिशा दिखाने की ज़रूरत है।
शिक्षक – मार्गदर्शक, न कि केवल अनुशासक
शिक्षक के लिए भी यह समझना आवश्यक है कि आज का छात्र केवल किताबों से नहीं, बल्कि मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया से भी सीखता है। इसलिए पारंपरिक “डांटने वाली शिक्षा” अब प्रभावी नहीं रही। शिक्षक अगर अपने विद्यार्थियों से संवाद का रिश्ता बनाएँ, तो बच्चे उन्हें “डरने वाला गुरु” नहीं बल्कि “विश्वास करने वाला मित्र” मानने लगते हैं। और वहीं से शुरू होती है सच्ची शिक्षा।
समझ से जन्मता है सम्मान
किसी भी बच्चे के भीतर बड़ों के प्रति सम्मान तब ही टिकता है जब उसे महसूस होता है कि बड़े भी उसे समझते हैं।
सिर्फ़ आदेश देने से नहीं, बल्कि अपने व्यवहार, अपने उदाहरणों और अपने स्नेह से हम बच्चों को सही और गलत में अंतर करना सिखा सकते हैं।
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि आज कि पीढ़ी हम जैसी ही है बस अंतर यह है कि उनके सोचने का तरीका के वर्तमान समय के अनुरूप है। हमें उन्हें अपने जैसे बनाने की ज़रूरत नहीं, बल्कि उन्हें अपने तरीके से सही दिशा देने की ज़रूरत है। जब माता-पिता, शिक्षक और छात्र — तीनों एक-दूसरे की भावनाओं को समझेंगे, तभी एक ऐसा समाज बनेगा जहाँ संवाद ही अनुशासन की पहली सीढ़ी होगा।
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