अभिभावक की भूमिका और परवरिश का प्रभाव: महाभारत से लेकर आज के युग तक
समय चाहे महाभारत का हो या आज का आधुनिक युग — बच्चों के निर्माण में अभिभावक की भूमिका सदैव सबसे महत्वपूर्ण रही है। बच्चे समाज की नींव हैं, और इस नींव की मजबूती इस बात पर निर्भर करती है कि अभिभावक उन्हें किस दिशा में और किस सोच के साथ मार्गदर्शन देते हैं। आज के समय में
जब तकनीक, प्रतिस्पर्धा और भौतिकता जीवन का केंद्र बन चुकी है, तब सबसे बड़ी चुनौती है — बच्चों को सही दिशा में ले जाना।
हर माता-पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा जीवन में सफलता प्राप्त करे, एक अच्छा इंसान बने और समाज में अपनी पहचान स्थापित करे। लेकिन केवल यह चाहना पर्याप्त नहीं।
यह तभी संभव है जब अभिभावक अपने बच्चों का मार्गदर्शन समझदारी, धैर्य और संवेदनशीलता के साथ करें।
आज की परवरिश की सच्चाई
अक्सर देखा जाता है कि कई अभिभावक यह मान लेते हैं कि अपने बच्चे की हर आवश्यकता पूरी कर देना — स्कूल और ट्यूशन की फीस देना, नई वस्तुएँ खरीदकर देना या उसकी हर इच्छा पर तुरंत प्रतिक्रिया देना — यही एक जिम्मेदार अभिभावक होने की निशानी है। लेकिन सच्चाई यह है कि सुविधाएँ उपलब्ध कराना परवरिश नहीं, केवल पालन-पोषण का एक हिस्सा है।
बच्चे की हर माँग को बिना समझे पूरी कर देना उसे जीवन के संघर्षों से दूर कर देता है। यह सोच धीरे-धीरे बच्चे के भीतर यह भावना पैदा करती है कि उसे बिना प्रयास के सब कुछ मिलना चाहिए। यही सोच आगे चलकर अहंकार, असंवेदनशीलता और निर्भरता में बदल जाती है।
महाभारत से सीख: परवरिश का अंतर
यदि हम महाभारत की कथा देखें तो वहाँ भी दो परवरिशें थीं — एक उदाहरण और एक चेतावनी।
एक ओर थे पांडु के पुत्र, जिन्हें सत्य, संयम और धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा मिली। दूसरी ओर थे धृतराष्ट्र के पुत्र, जिन्हें बिना सीमाओं के लाड़-प्यार और पक्षपातपूर्ण संरक्षण मिला।
धृतराष्ट्र अपने पुत्रों, विशेषकर दुर्योधन, से अत्यधिक मोह रखते थे। वे उसकी गलतियों को कभी रोकते नहीं थे। परिणामस्वरूप, दुर्योधन के भीतर अहंकार, ईर्ष्या और असहिष्णुता पनपने लगी। उसे विश्वास था कि जो चाहे वह पा सकता है, चाहे वह न्यायोचित हो या नहीं।
इसके विपरीत, पांडवों को बचपन से ही संयम, मेहनत और जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाया गया। उनकी माता कुंती ने कठिन परिस्थितियों में भी अपने बच्चों को विनम्रता और सच्चाई के मूल्य सिखाए। गुरु द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह ने उन्हें जीवन के शस्त्र और शास्त्र दोनों का ज्ञान दिया।
परिणाम यह हुआ कि जब दुर्योधन ने छल और अन्याय का मार्ग अपनाया, तब युधिष्ठिर ने हर परिस्थिति में धर्म का साथ दिया। कुरुक्षेत्र का युद्ध केवल सत्ता का नहीं, बल्कि दो भिन्न परवरिशों के टकराव का प्रतीक था — एक ने अहंकार को जन्म दिया, दूसरी ने आदर्श को।
वर्तमान समय के लिए संदेश
आज के अभिभावक भी अक्सर “धृतराष्ट्र जैसी गलती” कर बैठते हैं —
वे अपने बच्चों को गलतियों से बचाने की कोशिश में उन्हें जिम्मेदारी से दूर कर देते हैं। बच्चों को हर बार जीत की आदत डाल देना, असफलता से बचाना, या “मेरे बच्चे को कुछ मत कहो” कहना — ये सब उन्हें कमजोर बना देता है।
इसके विपरीत, अगर बच्चे को यह सिखाया जाए कि हर कार्य के पीछे कारण समझना जरूरी है, कि सफलता प्रयास से मिलती है और कि सम्मान कमाया जाता है, तो वही बच्चा भविष्य में युधिष्ठिर या अर्जुन की तरह दृढ़ और विवेकशील बनेगा।
बच्चों से छोटे-छोटे काम करवाना, जैसे घर की व्यवस्था में सहयोग देना या अपनी चीज़ें स्वयं संभालना, न केवल जिम्मेदारी का भाव जगाता है बल्कि उनमें आत्मनिर्भरता और संवेदनशीलता भी पैदा करता है।
अंततः — सच्ची परवरिश क्या है?
सच्ची परवरिश का अर्थ बच्चों को केवल सुविधाएँ देना नहीं, बल्कि उन्हें यह सिखाना है कि जीवन में हर परिस्थिति से कैसे जूझना है।
एक जिम्मेदार अभिभावक वह नहीं जो हर समस्या को बच्चे के रास्ते से हटा दे, बल्कि वह है जो बच्चे को सिखाए कि समस्याओं से कैसे निपटना है।
महाभारत की तरह आज भी यही सत्य है —
“सही परवरिश ही बच्चे का भविष्य तय करती है।”
अगर आज अभिभावक अपने बच्चों में सही सोच, जिम्मेदारी और आत्मसंयम के संस्कार बोते हैं, तो भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल होगा।
क्योंकि, बच्चों को सही दिशा देना ही सबसे बड़ा प्रेम है — और यही सबसे बड़ी जिम्मेदारी भी।
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