Wednesday, October 1, 2025

स्त्री और मातृत्व : समाज की सोच पर पुनर्विचार

स्त्री और मातृत्व : समाज की सोच पर पुनर्विचार


स्त्री का मातृत्व केवल एक जैविक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक गहरा और अनोखा अनुभव है। जब एक स्त्री नवजात शिशु को जन्म देती है, तो लोग प्रायः उस नन्हीं जान के आने का उत्सव मनाते हैं, लेकिन बहुत कम लोग यह समझते हैं कि वास्तव में यह स्त्री का भी पुनर्जन्म होता है। वह नौ माह तक अपनी कोख में जीवन को संजोए रखती है, अपनी इच्छाओं और सुखों का त्याग करती है, अनगिनत पीड़ाओं से गुजरती है और अंततः संसार को नया जीवन देती है।


फिर भी, इन त्यागों और बलिदानों को समाज अक्सर अनदेखा कर देता है। उसके जीवन में दुख और यातनाएँ ऐसे जुड़े रहते हैं, मानो यह उसी के हिस्से का स्थायी सत्य हो। और यदि कोख में पल रही संतान एक लड़की हो, तो यह यातना और भी बढ़ जाती है। समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी स्त्री को इसके लिए दोषी ठहराता है, जैसे संतान का लिंग निर्धारण केवल उसी के हाथों में हो।


लेकिन यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि संतान का लिंग निर्धारण पुरुष के गुणसूत्रों पर निर्भर करता है। फिर भी, स्त्री को ही दोष देने की मानसिकता हमारे समाज की गहरी जड़ें जमा चुकी सोच को दर्शाती है। सवाल उठता है कि जब संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया में पुरुष और स्त्री दोनों की भूमिका समान है, तो सारा दोष केवल स्त्री पर क्यों मढ़ा जाता है?


असल में, यह स्थिति केवल व्यक्तिगत सोच का परिणाम नहीं है, बल्कि हमारे सामाजिक ढांचे की असमानताओं को उजागर करती है। समाज की बागडोर लंबे समय से पुरुषों के हाथों में रही है। पुरुष प्रधान मानसिकता के कारण स्त्री को हर स्थिति में दोषी ठहराना मानो परंपरा बन गई है। यह प्रवृत्ति न केवल स्त्री का अपमान है, बल्कि ईश्वर की उस मंशा के भी विपरीत है जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों को समान और पूरक के रूप में बनाया गया है।


शारीरिक विभिन्नताओं के आधार पर स्त्री को हीन या दोषी ठहराना किसी भी दृष्टिकोण से न्यायोचित नहीं है। समय की मांग है कि समाज इस संकीर्ण सोच से बाहर निकले और यह स्वीकार करे कि संतानोत्पत्ति में स्त्री और पुरुष दोनों समान रूप से सहभागी हैं।


स्त्री केवल जीवन देने वाली नहीं, बल्कि वह परिवार और समाज की धुरी है। उसके बिना न तो जीवन संभव है और न ही समाज का अस्तित्व। इसलिए अब यह आवश्यक है कि हम स्त्री को दोषमुक्त दृष्टि से देखें, उसे उसके वास्तविक सम्मान और अधिकार दें। यही एक स्वस्थ, संतुलित और समान समाज की ओर पहला कदम होगा।

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